नीता शेखर,
जिंदगी क्या है एक कहानी तो है. सभी कहानी के पात्र ही तो हैं. कभी पर्दा गिरता है कभी पर्दा उठ जाता हैं.
हम क्या है इस समाज और संसार में एक कहानी का रोल अदा करने आए हैं. हर एक इंसान का अपना एक रोल होता है. वह उस व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है कि उसने अपने रोल को कैसे निभाया. हां समय के साथ, किरदार के साथ साथ रोल भी बदल जाता है लेकिन सत्य है कि अपनी-अपनी रोल को अदा करके जाना ही पड़ता है.
“बाबूजी” एक रोल ही तो अदा कर रहे थे अपने सात सात बच्चों के साथ. उन्होंने एक मध्यमवर्गीय किसान होते हुए भी अपने तीनों बेटों को हॉस्टल में रखकर पढ़ाया. बच्चे पढ़ने में तेज थे. उनकी बड़ी इच्छा थी की कोई बच्चा बैरिस्टर बने मगर यह इच्छा पूरी नहीं हुई. हां तीनों बेटों उच्च डिग्री पाकर नौकरी में चले गए थे. दो बेटा तो बाहर चला गया था, एक बेटा यही बेंगलुरु में बस गया था. सभी बेटियों की शादी हो गई थी.
अब बाबूजी अपनी पत्नी के साथ गांव में ही रह रहे थे उन्हें बहुत ही खुशी मिलती जब उन्हें महसूस होता कि आज उनके बच्चे अच्छे से अच्छे पदों पर आश्रित है. यही तो उन्होंने सोचा था. पाई पाई जोड़ कर उन्होंने अपने बच्चों को पढ़ाया लिखाया. उन्हें लगता था मैंने जो ड्रामे का किरदार लिया था उसको अच्छे से निभा दिया.
कहते हैं ना कि वक्त कब बदल जाए कोई नहीं जानता ऐसे ही एक दिन सब बातें सोच रहे थे की छाती में दर्द सा महसूस हुआ. उन्होंने झट से गांव के डॉक्टर को बुलाया. डॉक्टर ने चेकअप करने के बाद कहा कि आपको बाहर जाना होगा दिखाने के लिए. अभी मैंने आपको दवाई दे दी है उससे आपको थोड़ा आराम हो जाएगा.
अगले दिन उन्होंने अपने बेटे से बात की उसने कहा बाबूजी मैं लेने नहीं आ पाऊंगा अगर आप खुद आ जाते हैं तो कुछ कर सकता हूं. बेचारे बाबूजी कभी कहीं अकेले निकले नहीं थे अब मजबूरी में जाना ही होगा. फिर अपनी पत्नी के साथ बेंगलुरु पहुंच गए. अब वहां जब पहुंचे तो उन्हें बड़ा अजीब सा लगा. बेटा लेने भी नहीं आया. खैर किसी तरह घर पहुंचे. उसकी पत्नी ने चाय नाश्ता कराया और अपने बेटे को कहा जाओ दादा दादी को उनको कमरा दिखा दो. बच्चे उन्हें एक कमरे में ले गए. ऐसा लग रहा था जैसे स्टोर. बिल्कुल छोटा सा कमरा.
शाम को जब बेटा आया तो कहने लगा बाबूजी मैं आपको सप्ताह के आखिरी दिन डॉक्टर को दिखा पाऊंगा. कोई बात नहीं तुम खाली हो जाओ तब दिखा देना. जिस पिता ने अपने बच्चों को बनाने के लिए दिन रात एक कर दी थी आज उन्हीं के पास टाइम नहीं था. डॉक्टर ने चेकअप करने के बाद में बताया आपके बाबूजी के चार आरटरिज बंद है. जल्द से जल्द ऑपरेशन कराना होगा.
बेटा सोच में पड़ गया उसने घर आकर अपने भाइयों से बात की. उन्होंने इनकार कर दिया. बेटे ने कहा बाबूजी वे लोग तो नहीं आएंगे. मैं अकेला कैसे करुं. आज बाबूजी को एक झटका सा लगा. उन्होंने अपना रोल बखूबी निभाया था पर बच्चे अपने रोल में फेल हो गए थे. बेटे ने कहा बाबूजी आप सब गांव का घर बेच दो फिर जो पैसा आएगा उससे मैं आपका इलाज करवा दूंगा. इतना सुनते ही बाबूजी कि होश उड़ गए. क्या आज के लिए ही मैंने इनको इतना बड़ा बनाया था कि जब समय आए तो इनके पास बाबूजी के लिए ना पैसे हो ना टाइम.
आज उन्हें बहुत जोर का झटका लगा. उन्होंने अपने बेटे से कहा तुम ऐसा करो मेरा टिकट करा दो. फिर मैं देखता हूं कि क्या कर सकता हूं. दोनों पति-पत्नी गांव वापस आ गए. उन्होंने कहा यही तो एक मकान है जो हमारी पूंजी है. इसे मैं कैसे बेच दूं. सारी जमा पूंजी तो बेटों को पढ़ाने लिखाने और बेटियों की शादी में खर्च हो गए. अब अगर मैं इसे बेच दूंगा तो हम रहेंगे कहां. उन्होंने ऑपरेशन कराने का ख्याल छोड़ दिया. अब बाबूजी को दिन-रात लगता कहीं मैंने अपना रोल निभाने में चुक तो नहीं कर दी. अब तो अधिक चिंतित रहने लगे. फिर एक दिन ऐसा सोए कि उठ नहीं पाए. वह हमेशा हमेशा के लिए अपना किरदार निभा कर चले गए थे.
खैर जब बेटों को पता चला तो आए. जब बाबूजी का क्रिया कर्म खत्म हो गया. बेटियां वापस चली गई तब बेटे ने अपनी मां से कहा- मां तुम यहां अकेले रह कर क्या करोगी. हम इस घर को भेज देते हैं. तुम हम सब के साथ रहना. मां तो बिचारी थी क्या कर क्या कर सकती थी. बेटे ने मकान बेच कर पैसे आपस में बांट लिए. बेटे ने कहा मां सबके यहां चार चार महीना रहेगी. उन्होंने मां का भी बंटवारा कर दिया. छोटा बेटा मां को लेकर चला गया. 4 महीने गुजरने के बाद जब उसने दोनों भाइयों को फोन किया तो दोनों बेटों ने हाथ खड़े कर दिए. वह मां को रखने के लिए तैयार नहीं थे. फिर उन्होंने आपस में बातचीत करके मां को आश्रम में भेज दिया. जिस मां ने सबको पाल पोस कर बड़ा किया. उनके पास मां को रखने के लिए जगह नहीं थी. उन्होंने मां को वृद्धा आश्रम भेज दिया. इतना कहते-कहते उनकी आंखों से आंसू अश्रु धारा बह चली थी, मेरी भी आंखें भर आई थी.
बाबूजी तो अपना रोल निभा कर चले गए थे, छोड़ गए थे अपनी अर्धांगिनी को आश्रम में जीवन यापन करने को.
मैं सोच रही थी हमारा समाज कैसा है जो मां बाप अपने बच्चों के लिए सब कुछ गवा देते हैं. उन्हीं बच्चों को ना मां बाप के लिए समय है न जगह है.
यह कहानी एक सत्य घटना पर आधारित है. मैं खुद आंटी से मिली थी. ऐसे दुख की घड़ी में भी बच्चों के लिए उनके मन से आशीर्वाद ही निकल रहे थे. मैं भारी कदमों से वापस आ गई और सोच रही थी यह सच है. इंसान अपना रोल ही तो अदा करने आता है. आज बाबूजी थे कल कोई और होगा बस किरदार बदल जाएगा रोल वही होगा.