राहुल मेहता,
वैश्विक महामारी कोरोना से पीड़ितों की संख्या के मामले में भारत विश्व में छठे स्थान पर पहुंच चुका है. यही रफ्तार रही तो अगले हफ्ते नंबर चार पर भी आ जाएगा. प्रार्थना तो यही है कि ओलंपिक के मेडलों की तरह भारत इस बार भी टॉप 3 में ना आ पाए. शायद पहली बार प्रथम तीन में ना आने की प्रसन्नता होगी.
तथ्यों की अनदेखी महंगी पड़ी
तथ्य कभी-कभार कड़वे होते हैं. परंतु समस्या के निदान के लिए कड़वे तथ्यों का विश्लेषण आवश्यक है. एक तथ्य यह भी है कि भारत ने लॉकडाउन सफल तो रही परंतु पूर्णतः नहीं. इसका सबसे बड़ा कारण है मजदूरों का लगातार पलायन. आज झारखंड जैसे राज्यों में अधिकतर मामले दूसरे राज्यों से आने वाले मजदूर हैं. वे एक साथ समूह में आ रहे हैं अतः मामले भी थोक के भाव समूह में ही मिल रहे हैं. इस लंबी यात्रा उन्होंने कितनों को संक्रमित किया पता नहीं. देश में संक्रमण के लिए जिम्मेवार प्रारंभ में ना तो सिर्फ जमाती थे ना सिर्फ अब मजदूर हैं, परंतु दोनों ने संक्रमण फैलाने में अपना योगदान दिया है इसे नकारा नहीं जा सकता. इन्हें रोका जा सकता था यह भी एक कड़वा सच है. आखिर चूक कहां हुई?
हमने गलतियों से सीखने का प्रयास नहीं किया. लोगों के मनोविज्ञान और असुरक्षा के भय को जानने की कोशिश नहीं की. प्रयास करने के बजाए राजनीति मैं उन्हें रहे. मजदूरों के समस्या का को नजरअंदाज किया. यह समझने से चूक गए कि ये मुसीबत के मारे, असुरक्षा के भय से अपना सब कुछ दांव पर लगा कर घर से निकल पड़े हैं, किसी के बहकाने या बरगलाने से नहीं. न ही उन्हें भगा कर किसी दूसरे को बसाने की योजना थी और न ही यह अफरा-तफरी बिजली पानी काटने का परिणाम थी.
यह पलायन सिर्फ कोरोना के कारण नहीं
तथ्यों की अनदेखी ने मजदूरों के समस्या का समय रहते निदान नहीं होने दिया. यह लगातार भयावह होते गयी. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मजदूरों का यह पलायन सिर्फ कोरोना के कारण हुआ. यह समस्या एक लंबे समय से जारी शोषण और उहापोह के स्थिति का चरम प्राप्ति का प्रतिफल है. मजदूर वर्ग अपने शोषण और समस्याओं से पहले से पीड़ित थे. वे किसी तरह अपना परिवार चला रहे थे लेकिन ना तो वे अपने जीवन से खुश थे नाही अपने भविष्य के प्रति सुरक्षित. व्यवसाय में खतरा उठाने की सीमित शक्ति के कारण वे किसी तरह अपनी जीविका के गाड़ी खींचे चले जा रहे थे, एक अवसर के इंतजार में. उन्हें इस आपदा में एक अवसर मिला. केरल जैसे राज्य में 9000 रुपए मानदेय का प्रलोभन दे केवल 2000 दिए जा रहे थे. ऐसे मामले अनेक होंगे. उन मजदूरों ने तो आपदा को अवसर में बदल दिया. अब बारी है सरकार की. वह इस आपदा को कैसे अवसर में बदलती है? कैसे मानव संसाधन का समुचित उपयोग करती है? कैसे आने वाले दिनों में इनके शोषण को रोक पाने में सफल होती है?
यह काम संभव है और ज्यादा कठिन भी नहीं. लेकिन यह सिर्फ जुमलों या अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन से नहीं बल्कि धरातल में ईमानदार और निरंतर प्रयास से ही संभव होंगे.