नई दिल्ली: जैसे-जैसे कोरोना महामारी दुनिया भर में अपने पैर पसार रही है इसकी वैक्सीन बनाने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाले एक्सपर्ट एक साथ आ रहे हैं. वैज्ञानिक, शोधकर्ता और दवा बनाने वाले आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) और मशीन लर्निंग एक्सपर्ट के साथ मिल कर इस चुनौती को कम से कम समय में पूरी करने की कोशिश में लगे हैं. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के पहले के दौर में कोई नई वैक्सीन या दवा बनने में सालों का वक्त लगता था. योगेश शर्मा न्यूयॉर्क में हेल्थकेयर इंडस्ट्री में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एंड मशीन लर्निंग में बतौर सीनियर प्रोडक्ट मैनेजर काम करते हैं.
वो कहते हैं कि जानवरों पर वैक्सीन का ट्रायल शुरू करने से पहले रसायनों के अलग-अलग कॉम्बिनेशन बनाने और उनके मॉलिक्यूलर डिज़ाइन बनाने में ही सालों का वक्त लग जाता था. लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एंड मशीन लर्निंग के इस्तेमाल से इस काम को सालों की बजाय अब कुछ दिनों में ही पूरा कर लिया जाता है. वो कहते हैं, “मशीन लर्निंग के साथ रसायनों के सिन्थेसिस का काम करने पर वैज्ञानिक अब एक साल का काम एक सप्ताह में हासिल कर लेते हैं. ब्रिटेन में मौजूद आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस स्टार्टअप कंपनी पोस्टऐरा कोरोना वायरस से निपटने के लिए दवा के खोज के काम में जुटी है. केमिस्ट्रीवर्ल्ड के अनुसार के अनुसार, “आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से कंपनी दवा बनाने के लिए नए रास्ते तलाश रही है. नोवल कोरोना वायरस को हराने के लिए ये कंपनी अपने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एल्गोरिद्म के ज़रिए दुनिया भर के दवाई बनाने वालों की जानकारी एक साथ लेकर आ रही है .”
कोरोना महामारी में काम में आया एआई
वायरस को फैलने के लिए रोकने के लिए शुरूआती महीनों में भारत में स्वैब टेस्ट को अधिक प्राथमिकता दी गई. इस टेस्ट के नतीजे आने में दो से पांच दिन का वक्त लग सकता है. नतीजे आने में होने वाली देरी के कारण भारत में कोरोना वायरस अधिक तेज़ी से फैला. हालांकि ईएसडीएस सॉफ्टवेयर सोल्यूशन्स के मुख्य कार्यकारी अधिकारी पीयूष सोमानी कहते हैं कि एक्सरे और सीटी स्कैन के ज़रिए पांच मिनट में इसका पता लगाया जा सकता है.
वो कहते हैं, “एए प्लस कोविड-19 टेस्टिंग आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग पर आधारित है. ये टेस्टिंग आपको पांच मिनट के भीतर बता सकता है कि कोई व्यक्ति कोरोना संक्रमित है या नहीं. लक्षण वाले और बिना लक्षण वाले कोरोना संक्रमितों की टेस्टिंग में सरकारी अस्पतालों में इस अलग और सस्ते रेपिड डिटेक्शन टेस्टिंग सोल्यूशन की सफलता की दर क़रीब 98 फीसदी है. जिन मामलों में व्यक्ति को फेफ़ड़ों से जुड़ी अन्य समस्याएं है उनमें इस तरीके से कोविड-19 संक्रमण टेस्टिंग की सफलता दर करीब 87 फीसदी है.”
ये बात सच है कि पहले कुछ महीनों में भारत सरकार कोविड-19 टेस्ट के तौर पर स्वैब टेस्ट पर ही निर्भर कर रही थी. इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रीसर्च (आईसीएमआर) ने ये कहते हुए एक्सरे टेस्ट पर रोक लगा दी थी कि कोविड-19 मरीज़ों के लिए ये घातक साबित हो सकता है. पीयूष सोमानी कहते है कि केवल स्वैब टेस्ट पर निर्भर करने से वायरस को फैलने से रोकने की कोशिश में देरी होती है. वो कहते हैं कि अब देश में एक्सरे और सीटीस्कैन टेस्ट किए जा रहे हैं और इस कारण संक्रमितों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ रही है.
मेडिकल सेक्टर में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस
भारत में मेडिकल क्षेत्र में काम करने वाले डॉक्टरों के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग कोई नई तकनीक नहीं है. इससे पहले भी हाल के दिनों में जटिल सर्जरी जैसे कामों में इसी तकनीक को काम में लाया गया है. बीते साल दिल्ली के एक अस्पताल में इलाज के लिए उज़्बेकिस्तान के एक नागरिक आए थे. उनकी किडनियां फेल हो रही थीं. इस सर्जरी में एक रोबोट को काम में लाया गया जिसने एक व्यक्ति के शरीर से किडनी निकाल कर दूसरे व्यक्ति के शरीर में फिट कर दिया. वो कहती हैं कि ये मामूली सर्जरी नहीं थी लेकिन डॉक्टर तनाव में नहीं थे.
रोबोटिक्स असिस्टेड सर्जरी
इस तरह की सर्जरी को रोबोटिक्स असिस्टेड सर्जरी यानी आरएएस कहा जाता है और इसके मूल में होता है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस. अगर हम पारंपरिक तौर पर की जाने वाली सर्जरी की बात करें तो न केवल ऑपरेशन की प्रक्रिया में अधिक वक्त लगता है बल्कि मरीज के दोबारा पूरी तरह स्वस्थ होने में भी अधिक वक्त लगता है. उन्हें अधिक दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ता है और सबसे अहम बात सर्जरी कितनी सटीक हुई इसकी भी कोई गारंटी नहीं होती. आरएएस की मदद से न केवल समय बचता है बल्कि मरीज़ों का पैसा भी बचता है. पूरे भारत में पांच सौ से अधिक अस्पतालों और क्लीनिक में आज रोबोटिक्स असिस्टेड सर्जरी की जाती है. आज आर्टिफ़िशिय़ल इंटेलिजेंस की मदद से ऐसे रोबोट तैयार किए गए हैं जो इंसान की तरह इमोशन रखते हैं.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, डाटा माइनिंग और मशीन लर्निंग के सेक्टर में हो रहे नए शोध पर गूगल ने बीते साल डॉक्यूमेन्टरी की एक सिरीज़ प्रसारित की थी. इस सिरीज़ की शुरुआत में जो कहा गया है वो कुछ इस प्रकार है, “ऐसा लगता है कि हम एक नए युग की शुरुआत के दौर में हैं, ये है एआई का यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का युग. “आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स ने अब तक हमारे जीवन को आसान बनाया है और हमारी मददगार रही है, लेकिन अगर हम रोबोट को इंसान की तरह की सबकुछ सिखा देंगे तो वो इंसानों से स्मार्ट बन जाएंगे और फिर हम इंसानों के लिए मुश्किल पैदा करेंगे. ”
डर और चेतावनी के बावजूद ऐआई के काम में तेजी
लेकिन जानकारों की चेतावनी के बावजूद भी इस क्षेत्र में लगातार नए अनुसंधान किए जा रहे हैं. शायद जल्द ही ये भी संभव हो जाए कि इंसान का स्मार्टफ़ोन ही उसका डॉक्टर बन जाए और डॉक्टर की तुलना में स्मार्टफ़ोन ही उसे उसके स्वास्थ्य के बारे में सटीक जानकारी दे सके. माना जा रहा है कि साल 2022 तक भारत में 44 करोड़ स्मार्टफ़ोन यूजर होंगे और हेल्थकेयर एक बड़ा बाज़ार होगा. स्मार्टफोन के ज़रिए हेल्थकेयर पहुंचाने का कुछ काम पहले ही हो रहा है. मोबाइल ऐप्स के ज़रिए हार्ट रेट और ब्लड ग्लूकोज़ के बारे में जानकारी पता लगाई जा सकती है. ऐप के ज़रिए ब्लडप्रेशर का पता लगाने की भी कोशिश की जा रही है.
क्या है? आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इंटेलिजेन्स
जानकार कहते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इंटेलिजेन्स एक तरह की तकनीक है जो कंप्यूटर को इंसान की तरह सोचना सिखाती है. इस तकनीक में मशीनें अपने आसपास के परिवेश को देख कर जानकारी इकट्ठा करती हैं और उसी के अनुरूप प्रतिक्रिया देती हैं. इसके लिए सटीक डाटा की ज़रूरत होती है, हालांकि मशीन लर्निंग और एल्गोरिद्म के ज़रिए ग़लतियां दुरुस्त की जा सकती हैं. इससे समझा जा सकता है कि आज के दौर में डेटा क्यों बेहद महत्वपूर्ण बन गया है. भारत जैसे देश जहां प्रति एक हज़ार से अधिक की जनसंख्या पर केवल एक डॉक्टर हैं, वहां हेल्थकेयर में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इंटेलिजेन्स की प्रचुर संभावनाएं हैं.