श्रीमद् भगवद्गीता में लिखा है :-
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।6.41।।
अर्थात परलोक की गति इहलोक में किये गये कर्मों तथा उनके प्रेरक उद्देश्यों पर निर्भर करती है. कर्म मुख्यत दो प्रकार के होते हैं पाप और पुण्य. पापकर्म का आचरण करने वालों की अधोगति होती है केवल पुण्यकर्म का आश्रय लेने वाले ही आध्यात्मिक उन्नति करते हैं. हमारे शास्त्रों में इन पुण्यकर्मों को भी दो वर्गों में विभाजित किया गया है
(क) सकाम कर्म अर्थात् इच्छा से प्रेरित कर्म और
(ख) निष्काम कर्म अर्थात् समर्पण की भावना से ईश्वर की पूजा समझकर किया गया कर्म.
कर्म का फल कर्ता के उद्देश्य के अनुरूप ही होता है इसलिए सकाम और निष्काम कर्मों के फल निश्चय ही भिन्न होते हैं. स्वाभाविक है पूर्णत्व के चरम लक्ष्य तक पहुँचने के इन पुण्यकर्मियों के मार्ग भी भिन्नभिन्न होगें.
इस प्रकरण में उन्हीं मार्गों को दर्शाया गया है.जो लोग स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करने की इच्छा से ईश्वर की आराधना यज्ञयागादि तथा अन्य पुण्य कर्म करते हैं उन्हें देहत्याग के पश्चात ऐसे ही लोकों की प्राप्ति होती है जो उनकी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए अनुकूल हों. उस लोक में वास करके वे पुन इस लोक में शुद्ध आचरण करने वाले धनवान पुरुषों के घर जन्म लेते हैं.
संक्षेप में यदि दृढ़ इच्छा तथा समुचित प्रयत्न किये गये हों तो मनुष्य की कोई भी इच्छा हो वह यथासमय पूर्ण होती ही है.परन्तु निष्काम भाव से पुण्य कर्म करने वालों की क्या गति होती है भगवान् कहते हैं. ऋग्वेद १/१८९/१ में कुटिलता को, उलटे कर्म को पाप कहा गया हैं. इसलिए जब तक कुटिलता रहती हैं तब तक मनुष्य भद्र नहीं बन सकता हैं. मनुष्य को अंतत अपने मन को स्वाभाविक सरल अवस्था में रखना भी पापों से छुटने का उपाय हैं. इसके लिखे मन को कुटिलता से पृथक करके पापवृति को वशीभूत करना होगा.
एक बार अर्जुन ने भगवान से पूछा – मनुष्य न चाहते हुए भी क्यों पाप करता है और पाप का फल भोगने के लिए नरकों में जेल में 84 लाख योनियों में जाता है.
भगवान ने उत्तर दिया- कामना मनुष्य से पाप कराती है और कामना से उत्पन्न होने वाला क्रोध और लोभ यही मनुष्य को पाप में लगाते हैं ओर पाप से दुखी होता है, दुर्गति में जाता है. मनुष्य के मन में, इंद्रियों में बुद्धि में, अहम में और विषयों में कामना का वास होता है. कामना ही मनुष्य की बैरी है, पतन का कारण है.
ज्ञान रूपी तलवार से इसका भेदन करना चाहिए. मनुष्य के कर्म, बंधन का कारण बनते हैं, लेकिन वही कर्म दूसरों के हित के लिए किए जाते हैं तो मुक्त करने वाले बन जाते हैं. अपने लिए करें, स्वार्थ से करें, कामना से करें, तो वहीं कर्मबंधन है आफत है, भोग है और दूसरों के लिए करें, निष्काम भाव से करें, प्रेम से करें तो वही कर्म मुक्ति का, आनंद का, योग का कारण बनते है.
श्रीरामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में गरुड़ जी कागभुशुण्डिजी से कई मार्मिक प्रश्नों के उत्तर जानने की कोशिश करते हैं. कागभुशुण्डि-संवाद के मध्य जीवन के मूलभूत प्रश्नों को बड़ी ही सूक्ष्मता से उभारा गया है. गरुड़ जी ने कागभुसुंडि जी से सात प्रश्न पूछे. उनमें एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी था. सबसे घोर पाप कौन-सा है.और उत्तर है -परायी निंदा के समान कोई बड़ा पाप नहीं है कागभुसुंडि जी का कथन है कि भगवान और गुरु की निंदा करने वाले मेंढ़क की योनि में जाते हैं और हजार जन्म तक मेंडक ही बनते रहते है तथा संतो की निंदा करने वाले उल्लू की योनि में जाते है. जिनको मोह रुपी रात्रि प्यारी है परन्तु ज्ञान रूपी सूर्य नहीं भाता अथवा जो मुर्ख सब की निंदा करते है, वे दूसरे जन्म में चमगादड़ बनते है.
भगवान श्री कृष्ण ने दृष्टि में जो सबसे बड़ा पाप है वह है भ्रूण हत्या. महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद जब द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ में पल रहे बालक परीक्षित पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके उसकी हत्या कर दी तब भगवान श्री कृष्ण सबसे अधिक क्रोधित हुए थ.श्री कृष्ण ने उस समय समय ही यह घोषणा कर दी थी कि अश्वत्थामा का पाप सबसे बड़ा पाप है क्योंकि उसने एक अजन्मे बालक की हत्या की थी. श्री कृष्ण ने इस पाप की सजा स्वयं अश्वत्थामा को दी थी.श्री कृष्ण ने अश्वत्थामा के सिर पर लगा चिंतामणि रत्न छीन लिया और शाप दिया कि तुमने जन्म तो देखा है लेकिन मृत्यु को नहीं देख पाओगे यानी जब तक सृष्टि रहेगी तुम धरती पर जीवित रहोगे और कष्ट प्राप्त करोगे.भ्रूण की हत्या करने वाले के लिए सबसे कठोर सजा निर्धारित है और ऐसे व्यक्ति को कई युगों तक इस सजा का दंड भुगतना पड़ता है.
महाभारत के युद्ध के पश्चात, भीष्म पितामह शरशैया पर लेटे थे. युधिष्ठिर उनसे धर्म से सम्बंधित प्रश्न कर रहे थे. भीष्म पितामह उत्तर दे रहे थे. उस समय द्रौपदी ने कहा, “पितामह ! बुरा न माने तो एक बात मैं आपसे पूछूं ?” भीष्म ने कहा, “पूछो बेटी ! क्या पूछना चाहती हो ?” द्रौपदी ने कहा, “इस समय तो आप बहुत ऊँचे ज्ञान-ध्यान की बात कर रहे हैं, आपकी बातें सुनकर मन को शांति मिलती है, हृदय के कपाट खुलते हैं, परन्तु दुर्योधन के राजसभा में जब मेरा अपमान हुआ, जब दुराचारी दुःशासन ने मेरा चीर उतारना आरम्भ किया, तब मेरे चिल्लाने और पुकारने पर भी आप क्यों चुप होकर बैठे रहें ? उस समय आपका यह पवित्र ज्ञान कहाँ गया था?”
भीष्म धीरे से बोले, “पुत्री! मैं एक मनुष्य हूँ. उस समय मैं दुर्योधन के पाप का अन्न खाता था, पाप और अत्याचार से कमाया हुआ अन्न. उस अन्न को खाने के कारण मेरी बुद्धि खो गई थी. अब अर्जुन के तीरों ने मेरे शरीर से सेरों रक्त निकालकर उस अन्नके प्रभाव को समाप्त कर दिया है. अब मेरा मन पुनः जाग उठा है, मेरी आत्मा भी जागृत हो उठी है.”
वास्तव में पाप की कमाई का अन्न मन को बिगाड़ देता है. उसे कर्तव्य ज्ञान से विमुख कर डालता है.
बौद्ध दर्शन के अनुसार अकुशल कर्मों का करना अर्थात दुराचरण करना ही पाप है. कुशल कर्मों का करना अर्थात सदाचार करना ही पुण्य है. पापकारी यहाँ संतप्त होता है,मर कर संतप्त होता है, दोनों जगह संतप्त होता है. मैंने पाप किया है,यह सोचकर संतप्त होता है, दुर्गति को प्राप्त हो और भी संतप्त होता है.जैन धर्म में अठारह पाप बताए गए हैं. सिद्धांत की दृष्टि से मिथ्या-दर्शन सबसे बड़ा पाप माना गया है. मिथ्या-दृष्टि व्यक्ति देव, गुरु और धर्म में आस्था नहीं रखता. वह शरीर और आत्मा को एक मानता है तथा संसार और सांसारिक प्रलोभनों को सच समझता है.संक्षेप में ऐसा व्यक्ति अधर्म को धर्म मानता है. इसलिए मिथ्या-दर्शन को अन्य सभी पापों की जड़ कहा गया है.
महात्मा गांधी द्वारा उद्धृत, यंग इंडिया 1925 में सात सामाजिक पापों की व्याख्या की गई है. उन 7 सामाजिक पापों की सूची इस प्रकार है-
1. सिद्धांत के बिना राजनीति,
2. कर्म के बिना धन,
3. आत्मा के बिना सुख,
4. चरित्र के बिना धन,
5. नैतिकता के बिना व्यापार,
6. मानवीयता के बिना विज्ञान,
7. त्याग के बिना पूजा.
गांधीजी के अनुसार नैतिकता, अर्थशास्त्र, राजनीति और धर्म अलग-अलग इकाइयां हैं, पर सबका उद्देश्य एक ही है- सर्वोदय. ये सब यदि अहिंसा और सत्य की कसौटी पर खरे उतरते हैं, तभी अपनाने योग्य हैं. राजनीति यदि लक्ष्यहीन है, निश्चित आदर्शों पर नहीं टिकी, तो वह पवित्र नहीं. राजनीति से मिली शक्ति का उद्देश्य है- जनता को हर क्षेत्र में बेहतर बनाना. तटस्थता, सत्य की खोज, वस्तुवादिता और नि:स्वार्थ भाव एक राजनेता के आदर्श होने चाहिए. वॉलेंटरी पॉवर्टी यानी स्वेच्छा से गरीबी अपनाना और डी-पॉजेशन यानी निजी वस्तुओं का त्याग, राजनेता के लिए अनिवार्य कर्म है. धन बिना कर्म के मंजूर नहीं होना चाहिए, अनुचित साधनों से बिना परिश्रम से कमाया गया धन अस्तेय नहीं, चुराया हुआ धन है. अपने लिए जितना जरूरी हो, उतना रखकर बाकी जनता की अमानत समझकर न्यासी भाव से उसे कल्याण कामों में लगाना धनी व्यक्ति का कर्त्तव्य है. आत्मा के अभाव में सभी प्रकार के सुख सिर्फ भोग और वासना मात्र हैं. आत्मा से उनका अभिप्राय उस आंतरिक आवाज से है जो आत्म अनुशासन से सुनाई पड़ती है. यही गलत और सही का विवेक देती है. दूसरों को दुख देकर पाया गया सुख पाप है, अस्थायी है.
यदि इस सुख को स्थायी बनाना है तो पहले मूलभूत सुखों से वंचित लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करो. मनुष्य का लक्ष्य पवित्र होते हुए भी ज्ञान के बिना गलत रास्तों पर चलने का खतरा रहता है. चरित्र पर कलंक लग जाता है. सुंदर चरित्र या व्यक्तित्व के बिना ज्ञानी भी कभी-कभी पापी की कोटि में आ जाता है. राम के भक्त गांधीजी, राम को प्रत्येक नागरिक में देखना चाहते थे. व्यापार में अक्सर नैतिकता कुरबान हो जाती है, व्यापारी निजी और पेशे की नैतिकता को अलग-अलग तत्व मानते हैं. जरूरत से ज्यादा नफा लेने वाला व्यक्ति यदि अपनी दुकान पर ग्राहक का छूट गया सामान लौटा देता है तो भी वह नीतिवान नहीं माना जाएगा. जमाखोर किसी डाकू से कम नहीं होते. पूजा त्याग के अभाव में कर्मकांड मात्र रह जाती है. जीवन में धर्म का महत्व गांधीजी ने हर क्षेत्र में माना. परंतु धर्म भी आत्मविकास का साधन है. छोटे-छोटे स्वार्थों और आसक्तियों का त्याग विकास को पूर्णता की ओर ले जाता है. दूसरे धर्मों के प्रति आदर और सहनशीलता का भाव अहिंसा और सत्य का पालन है. दूसरे के धर्म में दखल देना, दूसरे धर्मावलंबियों को चिढ़ाने और लड़ने के मौके ढूंढना- पूजा की पवित्रता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं.
धर्म से अलग भी पाप की व्याख्या की गई है और जो व्याख्या सबसे सटीक और दीर्घकालीन प्रतीत होती है वो है रामधारी सिंह दिनकर की महान रचना “कुरुक्षेत्र ” में पाप की विवेचना. युध्द और शांति, हिंसा और अहिंसा, कर्म और भाग्य, पाप और पुण्य की कवि अपने युग के अनुकूल व्याख्या करता है. वह युध्द का, हिंसा का समर्थक नहीं है. लेकिन जब कोई हाथ हमारी तरफ उठता है, हमारा अस्तित्व खतरे में होता है, स्वत्व पर आघात होता है, तब वह स्वस्थ बैठने का उपदेश भी नहीं देता है. कर्म, कर्म ही होता है. उसके आधार पर मनुष्य को पापी या पुण्यात्मा ठहराया जाना कवि को पसंद नहीं है. कवि दिनकर पाप-पुण्य को व्यावहारिकता की कसौटी पर सकते हैं. पाप-पुण्य को व्याख्यायित करते हुए वे लिखते हैं-
‘छिनता हो स्वत्व कोई, और तू
त्याग-तप से काम ले, यह पाप है.
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे,
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो.’
हर मनुष्य का अपना पाप अलग सा ही दिखता है ,लेकिन तो सर्वत्र व्याप्त दृष्टि है वो यह कहती है कि मनुष्य अगर सतचित का वियोग करके जीना शुरू कर दे जो कि उसकी अपनी प्रकृति और सम्पूर्ण प्रकृति के लिए घातक हो तो वह अपने आप को पाप का भागी होने से नहीं रोक सकता. मनुष्य की नियति उसके कर्मों पर टिकी होती है. वेद ,पुराण, ग्रंथों और हर साहित्य में कर्म की प्रधानता धर्म से कहीं ज्यादा है क्योंकि धर्म को फलीभूत होने के लिए कर्म अत्यावश्यक है. जैसा कि हितोपदेश में कहा भी गया है –
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः |
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः||
अर्थात उद्यम से हि कार्य सिद्ध होते हैं, ना कि मनोरथों से . सोये हुए सिंह के मुख में हाथी (आकर) प्रवेश नहीं करते . अतः कर्म ही एक अस्त्र है पाप की जड़ काटने के लिए. अपना कर्म करते रहिए और सुख और पुण्य के भागी बनते रहिए.
By:- सलिल सरोज
कार्यकारी अधिकारी
लोक सभा सचिवालय
संसद भवन ,नई दिल्ली