रांची: आईसीएआर–भारतीय गेहूं एवं ज्वार अनुसंधान संस्थान (आईआईडब्ल्यूबीआर), करनाल, हरियाणा के तत्वाधान में दो दिवसीय 59वें राष्ट्रीय गेहूं और ज्वार कार्य समूह की वर्चुअल मीट 24 अगस्त से शुरू हुई. इसमें देशभर के अखिल भारतीय समन्वित गेहूं व ज्वार अनुसंधान परियोजना के 29 केंद्रों और करीब 55 वालंटियर केंद्रों के 200 से अधिक वैज्ञानिकों ने भाग लिया.
कार्यक्रम का उद्घाटन आईसीएआर महानिदेशक डॉ त्रिलोचन महापात्र ने किया. उन्होंने बताया कि देश में गत रबी मौसम में गेहूं के उत्पादन में उत्साहजनक वृद्धि देखने को मिली है. इस सफलता के लिए वैज्ञानिक और किसान प्रशंसा के हकदार है. शोध केंद्रों द्वारा शस्य तकनीकी प्रबंधन, कीट और रोग प्रबंधन एवं उन्नत किस्मों के विकास में काफी सराहनीय कार्य किये गये, जिसकी वजह से देश में गत वर्ष रबी में करीब 107 मिट्रिक टन उत्पादन दर्ज किया गया.
इस मौके पर आईआईडब्लूबीआर के निदेशक डॉ जीपी सिंह ने देश में गेहूं एवं ज्वार पर चल रहे वार्षिक शोध कार्यक्रमों और शोध केंद्रों की वार्षिक गतिविधियों का प्रतिवेदन पेश किया. मीट में विभिन्न शोध केंद्रों के परियोजना अन्वेंषकों ने शोध परियोजना से सबंधित कार्यक्रमों की उपलब्धियों पर चर्चा की.
इस मीट में बीएयू की रांची केंद्र की ओर से परियोजना अन्वेषक डॉ सूर्य प्रकाश और परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक डॉ सुनील कुमार, डॉ एचसी लाल, डॉ एकलाख अहमद, डॉ साबिता एक्का और डॉ नैयर अली ने भाग लिया. मौके पर डॉ सूर्य प्रकाश ने केंद्र द्वारा गेहूं फसल की 150 से अधिक जीनोटाईप का प्रक्षेत्रों में जांच प्रदर्शन, कीट एवं रोग प्रबंधन के विभिन्न मानकों और विभिन्न शस्य प्रणाली की तकनीकी प्रबंधन की जानकारी दी.
डॉ प्रकाश ने बताया कि गत रबी मौसम में कम अवधि में बेहतर प्रदर्शन करने वाली गेहूं किस्मों में डीबीडब्यूॉज् -14, एचआई-1563, डीबीडब्यू्रद -107 और कम सिंचाई में गेहूं की किस्म एचडी–13-17 और एचडी – 31-71 का बेहतर प्रदर्शन बेहतर पाया गया है. औसतन 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देने वाली बीएयू द्वारा विकसित किस्म बिरसा गेहूं-3 को राज्य के लिए उपयुक्त पाया गया है. यह 120 दिनों में तैयार होती है.
डायरेक्टर ऑफ रिसर्च डॉ अब्दुल वदूद ने बताया कि प्रदेश में 20 वर्ष पहले मात्र 30 हजार हेक्टेयर में गेहूं की खेती की जाती थी. वर्तमान में करीब 2 लाख हेक्टेयर भूमि में गेहूं की खेती की जा रही है. प्रदेश के लिए सीमित सिंचाई और देर से बुआई वाली बेहतर उपज देने वाली किस्मों को विकसित करने की आवश्यकता है.