रांची: वर्षों पूर्व बिरसा कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू) के आनुवांशिकी एवं पौधा प्रजनन विभाग के द्वारा तिल फसल की उन्नत किस्म ‘कांके सफ़ेद’ विकसित की थी. 80 दिनों कि अवधि वाली इस उन्नत किस्म की उपज क्षमता 5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इसमें 47-50 प्रतिशत तेल कि मात्र पाई जाती है. खरीफ मौसम में तेलहनी फसल की खेती में इस किस्म ने किसानों के बीच विशेष पहचान बना ली है.
चालू खरीफ मौसम में विभाग के तेलहन विशेषज्ञ डॉ सोहन राम के तकनीकी मार्गदर्शन में रांची जिले के चान्हो प्रखंड के कोजंगी गांव के 20 किसानों के कुल 15 एकड़ भूमि में तिल फसल का अग्रिम पंक्ति प्रत्यक्षण कराया गया है. खेतों में ‘कांके सफ़ेद’ किस्म का फसल प्रदर्शन से किसान काफी खुश है.
कोजंगी गांव के किसान जगदीश गोप बताते है कि स्थानीय देशी किस्म तथा परंपरागत खेती की तुलना में ‘कांके सफ़ेद’ के फसल प्रदर्शन से किसानों में आय में करीब दोगुनी बढ़ोत्तलरी की आस जगी है. गांव के अन्य किसान मनोज महतो बताते है कि तिल खेती को सहफसली अरहर, मक्का एवं ज्वार के साथ लगाया है. इस तरीके से किसानों को बहुतरफ़ा लाभ मिल रहा है. किसान नरसिंह महतो का कहना है कि कम लागत व कम पानी में करीब 80 दिनों वाली तिल किस्म कांके सफ़ेद से अच्छी उपज मिलने कि संभावना है. इससे बढ़िया आय के साथ फसल अवशेष से पशुओं को गुणवत्ता युक्त चारा फसल में उपयोग तथा आगामी खेती हेतु खेत की उर्वरता को बहाल करने का भी लाभ होगा.
डॉ सोहन राम बताते है कि तिल कि कांके सफ़ेद किस्म राज्य के रांची, खूंटी, रामगढ़, लोहरदगा एवं हजारीबाग जिले में प्रचलित हुई है. विगत 6 वर्षो में खूंटी जिले के तोरपा प्रखंड के रेडुम, डोरमा, कोनकारी, पुत्कलटोली, हेसल व चुरगी गांव तथा रांची जिले के कांके प्रखंड के सेमलबेरा गांव के आदिवासी किसानों के बीच तिल की खेती को बढ़ावा दिया गया. लोहरदगा, रामगढ एवं हजारीबाग जिले के किसानों के यहां भी प्रत्यक्षण के माध्यम कांके सफ़ेद किस्म को बढ़ावा दिया गया.
खूंटी जिले के रेडुम गांव के प्रगतिशील किसान विनोद भेंगरा तथा देवलाल भेंगरा बताते हैं कि तोरपा प्रखंड के 20 आदिवासी किसान 6 वर्षों से तिल किस्म कांके सफ़ेद की खेती से जुड़े हैं. इसकी खेती में सिंचाई की ज्यादा जरूरत नहीं होती. इस फसल को मवेशी भी हानि नहीं पहुंचाते हैं. फसल की ठीक से देखभाल की जाए तो 1 एकड़ में 2 क्विंटल तक फसल की पैदावर आसानी से प्राप्त की जा सकती. किसानों को स्थानीय बाजार में तिल की अच्छी कीमत मिल जाती है.
डॉ सोहन राम बताते है कि इस वर्ष आईसीएआर, नई दिल्ली ने बीज गुणन कार्यक्रम के तहत डेक हेतु 50 किलो प्रजनक बीज उत्पादन हेतु डिमांड भेजा है. चालू खरीफ मौसम में विभाग के शोध प्रक्षेत्र के करीब एक एकड़ भूमि में कांके सफ़ेद कि प्रजनक बीज का उत्पादन किया जा रहा है. विषम मौसम की परिस्थिति में प्रदेश हेतु तिल को सबसे उपयुक्त वैकल्पिक फसल माना जाता है. खरीफ में प्रदेश के किसान तेलहनी फसलों में मूंगफली के बाद तिल की खेती करना पसंद करते हैं. राज्य में उन्नत प्रभेद एवं वैज्ञानिक तकनीक से तिल की खेती को बढ़ावा देकर अधिक उपज तथा किसानों को अधिक आय का साधन मुहैया कराया प्राप्त जा सकता है.
तिल भारत का सबसे प्राचीनतम फसल है. विश्व में तिल उत्पादन के क्षेत्र में भारत का प्रथम स्थान है. भारत द्वारा प्रति वर्ष करीब 1510 करोड़ रूपये का तिल व इसके उत्पाद का निर्यात किया जाता है. झारखण्ड में तिल फसल का क्षेत्रफल, उत्पादन एवं उत्पादकता क्रमश: 14.65 हजार हेक्टेयर, 5.13 मी. टन तथा 350.4 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर मात्र है. राज्य के पलामु, दुमका, पश्चिमी सिंहभूम तथा गढ़वा जिले में इसकी खेती काफी प्रचलित है.
राज्य में तिल की किस्म कांके सफ़ेद को संरक्षण देने की जरूरत है. डेक कि तरह राज्य में भी तिल किस्म कांके सफ़ेद के बीज गुणन कार्यक्रम को बढ़ावा देने की काफी संभवानाएं मौजूद है.