BNN DESK: हमारे देश में हर साल 17 सितंबर को विश्वकर्मा जयंती मनाई जाती है. मान्यता है कि इस दिन निर्माण के देवता भगवान विश्कर्मा का जन्म हुआ था. यही कारण है कि आज के दिन संपूर्ण भारत में विश्वकर्मा जयंती मनाई जाती है.भगवान विश्वकर्मा की पूजा एक वास्तुकार के रूप में होती है, तभी इस दिन औजार, मशीन और दुकानों की पूजा भी की जाती है. वैसे तो वर्तमान समय में भवन, बड़ी बिल्डिंग का निर्माण का कार्य इंजीनियर करते हैं, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि सतयुग में स्वर्गलोक, त्रेतायुग में लंका, द्वापर में द्वारका और कलयुग में जगन्नाथ मंदिर का निर्माण किसने किया ? या फिर देवताओं के भवन, महल और उनके अस्त्र-शस्त्र किसने बनाए. मान्यता है कि समस्त देवी-देवताओं और भगवानों के महलों और अस्त्र-शस्त्र का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने किया था और यही कारण है कि भगवान विश्वकर्मा को शिल्पी भी कहा जाता है. ऐसी मान्यता है कि भगवान विश्वकर्मा पूरे ब्रह्माण के पहले इंजीनियर थे.
हर साल विश्वकर्मा पूजा कन्या संक्रांति को मनाई जाती है. इस दिन भगवान विश्वकर्मा का जन्म हुआ था, विश्वकर्मा को दुनिया का सबसे पहला इंजीनियर और वास्तुकार माना जाता है. इसलिए इस दिन उद्योगों, फैक्ट्रियों और हर तरह के मशीन की पूजा की जाती है.
यह पूजा सभी कलाकारों, बुनकर, शिल्पकारों और औद्योगिक घरानों द्वारा की जाती है. लेकिन देश के कुछ भागों में इसे दीपावली के दूसरे दिन भी मनाया जाता है. उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, दिल्ली आदि राज्यों में भगवान विश्वकर्मा की भव्य मूर्ति स्थापित की जाती है और उनकी आराधना की जाती है.
क्या है मान्यता
कहा जाता है कि प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थी, प्राय: सभी विश्वकर्मा की ही बनाई कही जाती हैं. यहां तक कि सतयुग का ‘स्वर्ग लोक’, त्रेता युग की ‘लंका’, द्वापर की ‘द्वारिका’ और कलयुग का ‘हस्तिनापुर’ आदि विश्वकर्मा द्वारा ही रचित हैं. ‘सुदामापुरी’ की तत्क्षण रचना के बारे में भी यह कहा जाता है कि उसके निर्माता विश्वकर्मा ही थे. इससे यह आशय लगाया जाता है कि धन-धान्य और सुख-समृद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को बाबा विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है.
कैसे हुई भगवान विश्वकर्मा की उत्पत्ति
एक कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम ‘नारायण’ अर्थात साक्षात विष्णु भगवान सागर में शेषशय्या पर प्रकट हुए. उनके नाभि-कमल से चर्तुमुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे. ब्रह्मा के पुत्र ‘धर्म’ तथा धर्म के पुत्र ‘वास्तुदेव’ हुए. कहा जाता है कि धर्म की ‘वस्तु’ नामक स्त्री से उत्पन्न ‘वास्तु’ सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे. उन्हीं वास्तुदेव की ‘अंगिरसी’ नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए. पिता की भांति विश्वकर्मा भी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने.
भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप हैं
भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं- दो बाहु वाले, चार बाहु एवं दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख एवं पंचमुख वाले. उनके मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ नामक पांच पुत्र हैं. यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार किया. इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है. विश्वकर्मा पर प्रचलित कथा भगवान विश्वकर्मा की महत्ता स्थापित करने वाली एक कथा है.
इसके अनुसार वाराणसी में धार्मिक व्यवहार से चलने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था. अपने कार्य में निपुण था, परंतु विभिन्न जगहों पर घूम-घूम कर प्रयत्न करने पर भी भोजन से अधिक धन नहीं प्राप्त कर पाता था. पति की तरह पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी. पुत्र प्राप्ति के लिए वे साधु-संतों के यहां जाते थे, लेकिन यह इच्छा उसकी पूरी न हो सकी. तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा कि तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ, तुम्हारी इच्छा पूरी होगी और अमावस्या तिथि को व्रत कर भगवान विश्वकर्मा के महात्म्य को सुनो.
इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे. उत्तर भारत में इस पूजा का काफी महत्व है.