पटना: या तो इसे एक नकारे हुए नेता का जादू कहें या फिर उनके विरोधियों की विफलता. 1980 में जनता पार्टी रूपी सपने का अंत हो गया और लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की ज़बरदस्त वापसी हुई. किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि इमरजेंसी हटने के तीन साल बाद ही इंदिरा गांधी सत्ता में वापस आएंगी. पर कांग्रेस पार्टी ने 543 सदस्यीय लोकसभा में 377 सीटों पर जीत हासिल की और इंदिरा गांधी एक बार फिर से प्रधानमंत्री पद पर काबिज़ हुई.
जनता पार्टी कई टुकड़ों में बंट गई जिसका एक बड़ा कारण था डूएल मेम्बरशिप पर उठा बवाल. लगातार मांग की जा रही थी कि जनसंघ के नेता जनता पार्टी में रहते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नाता नहीं रख सकते जो अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण अडवाणी सरीखे पूर्व भारतीय जनसंघ के नेताओं को मंज़ूर नहीं था. दबाव बढ़ने के बाद जनसंघ के सभी नेताओं ने मंत्री पद और जनता पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया, जिससे पार्टी चरमरा गई.
चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बनने के सपने संजोए बैठे थे. डेढ़ साल का भी समय नहीं गुजरा था कि चरण सिंह ने इंदिरा गांधी को जेल भेज दिया था. फिर वही चरण सिंह इंदिरा गांधी के दरवाज़े पर खड़े थे सहयोग की गुहार लेकर. इंदिरा गांधी मोम की गुडिया से एक कट्टर और अनुभवी नेता बन चुकी थीं. इस सुनहरे अवसर को उन्होंने हाथ से जाने नहीं दिया और चरण सिंह को निराश भी नहीं किया.
चरण सिंह की इंदिरा गांधी से मुलाकात के बाद जनता पार्टी का विधिवत विभाजन हो गया. जनता पार्टी से अलग होकर चरण सिंह ने जनता पार्टी (सेक्युलर) नाम की पार्टी का गठन किया और कांग्रेस पार्टी के समर्थन से केंद्र में 28 जुलाई 1979 को चरण सिंह की सरकार बन गई.
तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने चरण सिंह को अगस्त के तीसरे हफ्ते में लोकसभा में बहुमत सिद्ध करने का आदेश दिया था. 20 अगस्त को लोकसभा की बैठक होनी तय थी और 19 तारीख की रात को इंदिरा की कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा कर दी.
चरण सिंह ने लोकसभा जाने के बजाय राष्ट्रपति भवन जाना पसंद किया और मात्र 23 दिनों तक सरकार में रहने के बाद त्यागपत्र देना ही उचित समझा. हालांकि वह पद पर 14 जनवरी 1980 तक रहे, पर एक कार्यकारी प्रधानमंत्री की हैसियत से. चरण सिंह के नाम एक ऐसा रिकॉर्ड बना जो आज तक नहीं टूटा है – एक ऐसा प्रधानमंत्री जिसने संसद का कभी सामना ही नहीं किया.
इस बीच वाजपेयी और अडवाणी सरीखे जनसंघ के नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी के नाम से एक नई पार्टी के गठन का ऐलान किया, यानी जनसंघ बीजेपी के रूप में सामने आई, फर्क सिर्फ इतना ही था कि बीजेपी में कई गैर-जनसंघी नेता – सिकंदर बख्त, सुषमा स्वराज, वगैरह भी शामिल हए. 14 जनवरी 1980 को फिर से प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी ने जनता पार्टी के उन्मूलन का कार्यक्रम शुरू किया. उन सभी राज्यों में जहां जनता पार्टी की सरकार थी, वहां सरकारों को बर्खास्त कर विधानसभा भंग कर दिया गया, जिसमें बिहार भी एक था.
बिहार में चुनाव मई 1980 में हुआ और कांग्रेस (I) यानी इंदिरा कांग्रेस ने 324 में से 169 विधानसभा क्षेत्रों में जीत हासिल करके एक बार फिर से बिहार में सरकार बनाने में सफल रही. खंडित जनता पार्टी चार टुकड़ों में बंटकर चुनाव में गई – जनता पार्टी, जनता पार्टी (JP), जनता पार्टी (सेक्युलर) और जनता पार्टी (सेक्युलर-राजनारायण). चरण सिंह वाली जनता पार्टी (सेक्युलर) के सर्वाधिक 42, जनता पार्टी (JP) के 13 और राजनारायण वाली जनता पार्टी का एक विधायक चुना कर आया जबकि असली जनता पार्टी जिसके अभी तक चन्द्रशेखर अध्यक्ष थे, को किसी भी सीट पर सफलता नहीं मिली.
नवगठित बीजेपी ने 246 क्षेत्रों में प्रत्याशी उतारा, 173 सीटों पर उसकी जमानत जब्त हुई और पार्टी के 21 नेता विधायक बने. 8 जून 1980 को जगन्नाथ मिश्र ने मुख्यमंत्री पद ग्रहण किया और 3 साल 67 दिनों तक सत्ता का सुख भोगने के बाद 15 अगस्त 1983 को पटना में स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रीय झंडा फहराने से वंचित रह गए. जगन्नाथ मिश्र को दिल्ली दरबार से बुलावा आया था. पटना लौटने के बाद जगन्नाथ मिश्र ने राज्यपाल अखलाकुर रहमान किदवई को त्यागपत्र थमा दिया और चंद्रशेखर सिंह 14 अगस्त को अगले मुख्यमंत्री बने.
बिहार में 1980 से 1985 तक कांग्रेस पार्टी की सरकार चली तो ज़रूर, पर चाहे जगन्नाथ मिश्र की सरकार हो या चंद्रशेखर सिंह की, दोनों सरकारों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसे बिहार की जनता याद रखे. ना ही ऐसा कुछ किया जिससे जनता का कांग्रेस पार्टी के खिलाफ आक्रोश बढ़ जाए.
बिहार की जनता का आक्रोश तो उन शक्तियों के खिलाफ था जिन्होंने राजनीतिक लालसा के कारण लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सपनों की जनता पार्टी का सत्यानाश कर दिया था. 1980 के बिहार विधानसभा में एक पूर्व छात्र नेता लालू प्रसाद सोनपुर से जनाता पार्टी (सेक्युलर) की टिकट पर जीत कर आया था. इससे पहले 1977 में भी यह छात्र नेता छपरा क्षेत्र से लोकसभा चुनाव जीत चुका था.
यह वह नेता था जो आने वाले वर्षों में बिहार की तकदीर और तस्वीर बदलने वाला था. इस कड़ी में आगे देखेंगे कि कैसे बिहार में इंदिरा गांधी ने मुख्यमंत्री पद को एक म्यूजिकल चेयर की रेस बना दिया और आने वाले पांच सालों में बिहार को पांच मुख्यमंत्रियों का अनोखा तोहफा दिया.