BNN DESK: आज शारदीय नवरात्रि का पहला दिन है. यह पर्व आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारंभ होता है और नवमी तिथि तक चलता है. इस बार यह त्योहार 17 अक्तूबर से शुरू हो रहा है. हिन्दू धर्म के इस पावन पर्व पर मां दुर्गा के नौ अलग-अलग रूपों की पूजा होती है. नवरात्र के पहले दिन घटस्थापना का विधान है. इस दिन मां दुर्गा के पहले स्वरूप मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है.
ऐसा है मां शैलपुत्री का स्वरूप
शैलपुत्री का संस्कृत में अर्थ होता है ‘पर्वत की बेटी’. मां शैलपुत्री के स्वरूप की बात करें तो मां के माथे पर अर्ध चंद्र स्थापित है. मां के दाहिने हाथ में त्रिशूल है और बाएं हाथ में कमल का फूल है. वे नंदी बैल की सवारी करती हैं.
पूजा विधि
सुबह ब्रहम मुहूर्त में उठकर स्नान करें.
घर के किसी पवित्र स्थान पर स्वच्छ मिटटी से वेदी बनाएं.
वेदी में जौ और गेहूं दोनों को मिलाकर बोएं.
वेदी के पास धरती मां का पूजन कर वहां कलश स्थापित करें.
इसके बाद सबसे पहले प्रथमपूज्य श्रीगणेश की पूजा करें.
वैदिक मंत्रोच्चार के बीच लाल आसन पर देवी मां की प्रतिमा स्थापित करें.
माता को कुंकुम, चावल, पुष्प, इत्र इत्यादि से विधिपूर्वक पूजा करें.
वंदना मंत्र
वन्दे वाञि्छतलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम् ||
उपर्युक्त मंत्र का शुद्ध उच्चारण क्रिस्टल की माला से (१०८) बार करें.|
स्त्रोत पाठ
प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह: विनाशिन।
मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥
मां शैलपुत्री से जुड़ी पौराणिक कथा
मां दुर्गा अपने पहले स्वरुप में ‘शैलपुत्री’ के नाम से पूजी जाती हैं. पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा. अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं तब इनका नाम सती था. इनका विवाह भगवान शंकर जी से हुआ था. एक बार प्रजापति दक्ष ने बहुत बड़ा यज्ञ किया जिसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया किन्तु शंकर जी को उन्होंने इस यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया.
देवी सती ने जब सुना कि हमारे पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं,तब वहां जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा. अपनी यह इच्छा उन्होंने भगवान शिव को बताई. भगवान शिव ने कहा-”प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं,अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है. ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा.” शंकर जी के इस उपदेश से देवी सती का मन बहुत दुखी हुआ. पिता का यज्ञ देखने वहां जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी. उनका प्रबल आग्रह देखकर शिवजी ने उन्हें वहां जाने की अनुमति दे दी.
सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम से बातचीत नहीं कर रहा है. केवल उनकी माता ने ही स्नेह से उन्हें गले लगाया. परिजनों के इस व्यवहार से देवी सती को बहुत क्लेश पहुंचा. उन्होंने यह भी देखा कि वहां भगवान शिव के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है,दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे. यह सब देखकर सती का ह्रदय ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा. उन्होंने सोचा कि भगवान शंकर जी की बात न मानकर यहां आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है. वह अपने पति भगवान शिव के इस अपमान को सहन न कर सकीं, उन्होंने अपने उस रूप को तत्काल वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया.
वज्रपात के समान इस दारुणं-दुखद घटना को सुनकर शंकर जी ने क्रुद्ध हो अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया. सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया. इस बार वह शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं. पार्वती,हेमवती भी उन्हीं के नाम हैं. इस जन्म में भी शैलपुत्री देवी का विवाह भी शंकर जी से ही हुआ.