BNN DESK: आज नहाए-खाए के साथ छठ पर्व की शुरुआत होगी. व्रती घर, नदी, तालाबों आदि में स्नान कर अरवा चावल, चने की दाल और कद्दू की सब्जी का प्रसाद ग्रहण करेंगे. 19 नवंबर को खरना करेंगे. इस दिन व्रती दिनभर निर्जला उपवास रखने के बाद शाम को दूध और गुड़ से बनी खीर का प्रसाद खाकर चांद को अर्घ्य देंगे और लगभग 36 घंटे का निर्जला उपवास शुरू करेंगे. 20 नवंबर को व्रती डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य देंगे और 21 नवंबर को उदयीमान सूर्य को अर्घ्य देने के साथ महाव्रत संपन्न करेंगे. सूर्य को अर्घ्य देने के बाद प्रसाद वितरण करेंगे और अन्न-जल ग्रहण(पारण) कर चार दिवसीय अनुष्ठान समाप्त करेंगे.
- 18 नवंबर: नहाए खाए
- 19 नवंबर: खरना
- 20 नवंबर: शाम का अर्घ्य
- 21 नवंबर: सुबह का अर्घ्य
क्यों महत्वपूर्ण माना जाता है सूर्य पूजन?
सूर्य को ग्रंथों में प्रत्यक्ष देवता यानी ऐसा भगवान माना है जिसे हम खुद देख सकते हैं. सूर्य ऊर्जा का स्रोत है और इसकी किरणों से विटामिन डी जैसे तत्व शरीर को मिलते हैं. दूसरा, सूर्य मौसम चक्र को चलाने वाला ग्रह है. ज्योतिष के नजरिए से देखा जाए तो सूर्य आत्मा का ग्रह माना गया है. सूर्य पूजा आत्मविश्वास जगाने के लिए की जाती है.
पुराणों के नजरिए से देखें तो सूर्य को पंचदेवों में से एक माना गया है, ये पंच देव हैं ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दुर्गा और सूर्य. किसी भी शुभ काम की शुरुआत में सूर्य की पूजा अनिवार्य रूप से की जाती है. शादी करते समय भी सूर्य की स्थिति खासतौर पर देखी जाती है. भविष्य पुराण से ब्राह्म पर्व में श्रीकृष्ण ने अपने पुत्र सांब को सूर्य पूजा का महत्व बताया है. बिहार में मान्यता प्रचलित है कि पुराने समय में सीता, कुंती और द्रोपदी ने भी ये व्रत किया था.
मान्यता है कि छठ माता सूर्यदेव की बहन हैं. जो लोग इस तिथि पर छठ माता के भाई सूर्य को जल चढ़ाते हैं, उनकी मनोकामनाएं छठ माता पूरी करती हैं. छठ माता बच्चों की रक्षा करने वाली देवी हैं. इस व्रत को करने से संतान को लंबी आयु का वरदान मिलता है. मार्कण्डेय पुराण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि प्रकृति ने अपने आप को छह भागों में विभाजित किया है. इनके छठे अंश को सर्वश्रेष्ठ मातृ देवी के रूप में जाना जाता है, जो ब्रह्मा की मानस पुत्री हैं. माना ये भी जाता है कि देवी दुर्गा के छठे रूप कात्यायनी ही छठ मैया हैं.
छठ तिथि से दो दिन पहले चतुर्थी तिथि पर पूरे घर की साफ-सफाई की जाती है. इसे नहाय-खाय कहते हैं. इस दिन पूजा-पाठ के बाद शुद्ध सात्विक भोजन किया जाता है. इसी से छठ पर्व की शुरुआत मानी जाती है.
छठ व्रत की कथा
कथा सतयुग की है. उस समय शर्याति नाम के राजा थे. राजा की कई पत्नियां थीं लेकिन बेटी एक ही थी. उसका नाम था सुकन्या. एक दिन राजा शिकार खेलने गए. साथ में सुकन्या भी थीं. जंगल में च्यवन नाम के ऋषि तपस्या कर रहे थे. ऋषि काफी समय से तपस्या कर रहे थे, इस वजह से उनके शरीर के आसपास दीमकों ने घर बना लिए थे. सुकन्या ने खेलते हुई दीमक की बांबी में सूखी घास के कुछ तिनके डाल दिए. उस जगह पर ऋषि की आंखें थीं. तिनकों से ऋषि की आंखें फूट गईं. इससे ऋषि गुस्सा हो गए, उनकी तपस्या टूट गई.
जब ये बात राजा को मालूम हुई तो वे माफी मांगने के लिए ऋषि के पास पहुंचे. राजा ने ऋषि को अपनी बेटी सुकन्या सेवा के लिए सौंप दी. इसके बाद सुकन्या ऋषि च्यवन की सेवा करने लगी. कार्तिक मास में एक दिन सुकन्या पानी भरने जा रही थी, तभी उसे एक नागकन्या मिली. नागकन्या ने कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्य पूजा और व्रत करने के लिए कहा. सुकन्या ने पूरे विधि-विधान और सच्चे मन से छठ का व्रत किया. व्रत के प्रभाव से च्यवन मुनि की आंखें ठीक हो गईं. तभी से हर साल छठ पूजा का पर्व मनाया जाने लगा.