रांची: आज 21 फरवरी है यानि अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस. जितना लगाव हमें अपनी मां से होता है उतना ही अपनी भाषा से इसलिए शायद इसे मातृभाषा कहा जाता है. यानी अपनी जबान का सम्मान करने के दिन के रूप में इसे दुनियाभर के लिए मनाते हैं. युनेस्को ने सन् 1999 में प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी. भारत के लिए एक बड़ी ही मशहूर कहावत है,
कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी.
यानी भारत में हर चार कोस पर भाषा बदल जाती है. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत में कितनी भाषाएं बोली जाती होंगी.
बच्चे का शैशव जहां बीतता है, उस माहौल में ही जननी भाव है. जिस परिवेश में वह गढ़ा जा रहा है, जिस भाषा के माध्यम से वह अन्य भाषाएं सीख रहा है, जहां विकसित-पल्लवित हो रहा है, वही महत्वपूर्ण है.
Also Read This: नामी होटलों को मिला धमकी भरा ई-मेल, मची खलबली, बढ़ाई गई सुरक्षा
भारतीयों को अंग्रेजी भाषा भी सीखनी चाहिए, यह सोच महत्वपूर्ण थी. इसी मुकाम पर यह बात भी सामने आई कि विशिष्ट ज्ञान के लिए तो अंग्रेजी माध्यम बने मगर आम हिन्दुस्तानी को आधुनिक शिक्षा उनकी अपनी ज़बान में मिले. उसी वक्त मदर टंग जैसे शब्द का अनुवाद मातृभाषा सामने आया. यह बांग्ला शब्द है और इसका अभिप्राय भी बांग्ला से ही था. तत्कालीन समाज सुधारक चाहते थे कि आम आदमी के लिए मातृभाषा में (बांग्ला भाषा) में आधुनिक शिक्षा दी जाए. आधुनिक मदरसों की शुरूआत भी बंगाल से ही मानी जाती है.
जाहिर है कि मातृभाषा से तात्पर्य उस भाषा से कतई नहीं है जिसे जन्मदायिनी मां बोलती रही है. अकेली मां बच्चे के परिवेश के लिए उत्तरदायी नहीं है और न ही जन्म के लिए. सिर्फ मां की भाषा को मातृभाषा से जोड़ना एक किस्म की ज्यादती है, सामाजिक व्यवस्था के साथ भी. भारत समेत ज्यादातर सभ्यताओं में भी, कोई स्त्री, विवाहोपरांत ही बच्चे को जन्म देती है. बच्चे की भाषा के लिए अगर सिर्फ मां ही उत्तरदायी मान ली जाए, तब अलग-अलग भाषिक पृष्टभूमि वाले दम्पतियों में बच्चे की भाषा मातृपरिवार की होगी और बच्चे को वह भाषा सीखने के लिए माता का परिवेश ही मिलना भी चाहिए.
Also Read This: अपराधियों ने की कार पर 50 राउंड फायरिंग, हत्या
मातृसत्ताक व्यवस्थाओं में यह संभव है, मगर पितृसत्तात्मक व्यवस्था में यह कैसे संभव होगा? यह मानना कि प्रत्येक को अपनी मातृभाषा सिर्फ मां से ही मिलती है, मातृभाषा शब्द का आसान मगर कमजोर निष्कर्ष है और वैश्विक संदर्भ इसे अमान्य करते हैं. एक बच्चा मां की कोख से जन्म जरूर लेता है, मगर मातृकुल के भाषायी परिवेश में नहीं, बल्कि मां ने जिस समूह में उसे जन्म दिया है. उसी परिवेश की भाषा से उसका रिश्ता होता है. इस मामले में नारी मुक्ति या पुरुष प्रधानता वाली भावुकता भी बेमानी है.