बीएनएन डेस्कः छात्र नेता बनकर एक शैक्षणिक वर्ष का त्याग करते हुए 1975 में राष्ट्रव्यापी आपातकाल के दौरान नागरिक स्वतंत्रता के लिए लड़ने से लेकर अगले माह भारत के 48 वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदभार संभालने तक न्यायमूर्ति नथमलपति वेंकट रमना की यात्रा उल्लेखनीय रही है. आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के पोन्नवरम गांव में कृषिविदों के एक विनम्र परिवार में जन्मे न्यायमूर्ति रमना को उनके पिता ने जून 1975 में आपातकाल के खिलाफ एक सार्वजनिक बैठक की अध्यक्षता करने के बाद शहर छोड़ने के लिए कपड़ों का बैग बांधने के लिए कह दिया था.
न्यायमूर्ति रमना ने जनवरी में दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान अपने अनुभव साझा करते हुए कहा, ‘मैंने देखा कि इतने सारे युवाओं ने मानवाधिकारों के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया था. ऐसे में मुझे कॉलेज के एक साल खोने का कोई पछतावा नहीं है. मेरे पिता को यकीन था कि मुझे गिरफ्तार कर लिया जाएगा.’
1980 में एक लॉ कॉलेज में दाखिला लेने से पहले, न्यायमूर्ति रमना ने दो साल तक एक क्षेत्रीय समाचार पत्र के लिए एक पत्रकार के रूप में काम किया. उन्हें 1983 में बार में नामांकित किया गया था. एक वकील के रूप में उन्होंने संवैधानिक, आपराधिक, सेवा और अंतरराज्यीय नदी कानूनों में विशेषज्ञता हासिल की. साथ ही आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय, केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण, एपी राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरण और सिविल, आपराधिक, संवैधानिक, श्रम, सेवा और चुनाव मामलों में सर्वोच्च न्यायालय में अभ्यास किया.
उन्हें 2000 में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय का स्थायी न्यायाधीश नियुक्त किया गया और 2013 में दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया. 17 फरवरी 2014 को उन्हें सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया. इन वर्षों में, न्यायमूर्ति रमना कई ऐतिहासिक निर्णयों का हिस्सा बने.
उन्होंने उस बेंच का नेतृत्व किया जिसने पिछले साल जनवरी में फैसला सुनाया था कि अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद जम्मू-कश्मीर में दूरसंचार ब्लैकआउट के लिए सरकार की खिंचाई करते हुए कहा गया कि इंटरनेट का इस्तेमाल करना मौलिक अधिकार है. पीठ ने तब जम्मू-कश्मीर प्रशासन को आदेश दिया कि वह दूरसंचार और इंटरनेट सेवाओं पर अंकुश लगाने से संबंधित सभी आदेशों की समीक्षा करे और उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र में रखे.
कश्मीर प्रतिबंधों पर याचिकाओं के एक समूह को मानते हुए न्यायमूर्ति रमना की पीठ ने प्रेस की स्वतंत्रता के महत्व को भी रेखांकित किया था. पीठ की तरफ से कहा गया कि जिम्मेदार सरकारों को हर समय प्रेस की स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए.
इसके अलावा न्यायमूर्ति रमना ने कर्नाटक विधानसभा मामले में एक और महत्वपूर्ण फैसला सुनाया. उन्होंने विधायकों को अयोग्य ठहराने के स्पीकर के फैसले को सही ठहराया. सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि इस्तीफा देने से स्पीकर के अधिकार खत्म नहीं हो जाते हैं. हालांकि, अयोग्यता के मामले में विधायकों को अपना पक्ष रखने का मौका मिलना चाहिए. कोर्ट ने अयोग्य विधायकों को राहत देते हुए उनको विधानसभा उपचुनाव लड़ने की अनुमति दी. कोर्ट ने कहा कि विधायकों को विधानसभा के पूरे कार्यकाल के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता.
अध्यक्ष की भूमिका पर जोर देते हुए, न्यायमूर्ति रमन ने निर्णय में लिखा, ‘अध्यक्षों की निष्पक्ष होने के संवैधानिक कर्तव्य के खिलाफ कार्य करने वाली प्रवृत्ति बढ़ रही है. इसके अलावा घोड़ा-व्यापारिक राजनीतिक दल और पक्षपातपूर्ण भाषण नागरिकों को एक स्थिर सरकार से वंचित कर रहे हैं. इन परिस्थितियों में कुछ पहलुओं को मजबूत करने पर विचार करने की आवश्यकता है, ताकि इस तरह की अलोकतांत्रिक प्रथाओं को हतोत्साहित और जांच की जा सके.’
सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में जस्टिस रमना चुनावी मुद्दों से लेकर महिलाओं के अधिकारों सहित सूचना के अधिकार (आरटीआई) के दायरे में भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद लाने के विभिन्न फैसलों का हिस्सा रहे हैं. साल 2019 में पांच-न्यायाधीशों वाली बेंच में सदस्य रहे जस्टिस रमाना ने आरटीआई के तहत जनहित में मांगी गई जानकारी वाली याचिका पर सीजेआई के कार्यालय को एक सार्वजनिक प्राधिकरण घोषित किया. हालांकि, उन्होंने एक अलग राय में कहा, ‘आरटीआई को निगरानी के उपकरण के रूप में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए.’ न्यायमूर्ति रमना की अगुवाई वाली एक पीठ ने हाल ही के एक फैसले में पैतृक धारणा की आलोचना की कि गृहिणी न तो काम करती हैं और न ही घर के आर्थिक मूल्य में कोई योगदान देती हैं.