उन्होंने कहा था : “मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि उस दिल्ली में मैंने जहां बम डाला था, वहां एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लादा जाऊंगा।”
भारत के एक क्रांतिकारी ने अंग्रेजों के साथ जंग की। भगत सिंह के साथ मिलकर लड़ा. भगत सिंह को फांसी हुई पर उसको नहीं हुई। वो आजादी के बाद तक जिंदा रहा। पर देश ने क्या किया उसके साथ? जो किया वो रोंगटे खड़े करता है।
स्वतंत्रता संग्राम में एक घटना थी जिसने भारतीय इतिहास में वीरता का नया अध्याय लिखा। ये घटना थी दिल्ली की नेशनल असेम्बली में भगत सिंह का बम फेंकना। बम फेंकते वक़्त भगत सिंह ने कहा था: ‘अगर बहरों को सुनाना हो तो आवाज़ ज़ोरदार करनी होगी’। इस घटना में एक और क्रान्तिकारी था जिसने भगत सिंह के साथ ही गिरफ़्तारी दी थी।
वो क्रान्तिकारी थे बटुकेश्वर दत्त। भगत सिंह पर कई केस थे। उनको तो फांसी की सजा सुना दी गयी, लेकिन बटुकेश्वर दत्त इतने खुशकिस्मत नहीं थे उनको अभी बहुत कुछ झेलना था। अंग्रेजी सरकार ने उनको उम्रकैद की सज़ा सुना दी और अंडमान-निकोबार की जेल में भेज दिया, जिसे कालापानी की सज़ा भी कहा जाता है। कालापानी की सजा के दौरान ही उन्हें टीबी हो गया था जिससे वे मरते-मरते बचे। जेल में जब उन्हें पता चला कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सज़ा सुनाई गई है तो वो काफी निराश हुए। उनकी निराशा इस बात को लेकर नहीं थी कि उनके तीनों साथी अपनी आखिरी सांसें गिन रहे हैं। उन्हें दुःख था तो सिर्फ इस बात का कि उनको फांसी क्यों नहीं दी गई।
देश आज़ाद होने के बाद बटुकेश्वर दत्त भी रिहा कर दिए गए। लेकिन दत्त को जीते जी भारत ने भुला दिया। इस बात का खुलासा नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किताब “बटुकेश्वर दत्त, भगत सिंह के सहयोगी” में किया गया है।
नवम्बर 1947 में उन्होंने अंजलि नाम की लड़की से शादी की। अब उनके सामने कमाने और घर चलाने की समस्या आ गई। बटुकेश्वर दत्त ने एक सिगरेट कंपनी में एजेंट की नौकरी कर ली। बाद में बिस्कुट बनाने का एक छोटा कारखाना भी खोला, लेकिन नुकसान होने की वजह से इसे बंद कर देना पड़ा।
सोचने में बड़ा अजीब लगता है कि भारत का सबसे बड़ा क्रांतिकारी देश की आजादी के बाद यूं भटक रहा था।
भारत में उनकी उपेक्षा का एक किस्सा और है। अनिल वर्मा बताते हैं कि एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे। इसके लिए दत्त ने भी आवेदन किया। परमिट के लिए जब वो पटना के कमिश्नर से मिलने गए तो कमिश्नर ने उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लाने को कहा। बटुकेश्वर दत्त के लिए ये दिल तोड़ने वाली बात थी।
बाद में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को जब ये पता चला तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर दत्त से माफ़ी मांग ली। हालांकि फिर देश में बटुकेश्वर का सम्मान हुआ तो पचास के दशक में उन्हें चार महीने के लिए विधान परिषद् का सदस्य मनोनीत किया गया। पर इससे क्या होने वाला था। राजनीति की चकाचौंध से परे थे वो लोग।
अपनी जिंदगी की जद्दोजहद में लगे बटुकेश्वर दत्त 1964 में बीमार पड़ गए। उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनको इस हालत में देखकर उनके मित्र चमनलाल आज़ाद ने एक लेख में लिखाः
“क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी गलती की है।खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।”
अखबारों में इस लेख के छपने के बाद, सत्ता में बैठे लोगों के कानों पर जूं रेंगी। पंजाब सरकार उनकी मदद के लिए सामने आई. बिहार सरकार भी हरकत में आई, लेकिन तब तक बटुकेश्वर की हालत काफी बिगड़ चुकी थी. उन्हें 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया।
दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था-
“मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि उस दिल्ली में मैंने जहां बम डाला था, वहां एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लादा जाऊंगा।”
पहले उन्हें सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया। फिर वहां से एम्स ले जाया गया। जांच में पता चला कि उन्हें कैंसर है और बस कुछ ही दिन उनके पास बचे हैं। बीमारी के वक़्त भी वे अपने साथियों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को याद करके अक्सर रो पड़ते थे।
फिर जब भगत सिंह की मां विद्यावती जी अस्पताल में दत्त से उनके आखिरी पलों में मिलने आईं तो उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा जताते हुए कहा कि उनका दाह संस्कार भी उनके मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।
20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर पचास मिनट पर भारत के इस महान सपूत ने दुनिया को अलविदा कह दिया। उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के ही अनुसार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की समाधि के पास किया गया। भगत सिंह की मां तब भी उनके साथ थीं।
श्रीमती विरेन्द्र कौर संधू के अनुसार 1968 में जब भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के समाधि-तीर्थ का उद्घाटन किया गया तो इस 86 वर्षीया वीर मां ने उनकी समाधि पर फूल चढ़ाने से पहले श्री बटुकेश्वर दत्त की समाधि पर फूलों का हार चढ़ाया था। बटुकेश्वर दत्त की यही इच्छा तो थी कि मुझे भगतसिंह से अलग न किया जाए।
ऐसे क्रांतिवीर को हमारा नमन।
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