रांचीः राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने कहा है कि देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा जनजातियों का है. अति प्राचीन काल से ही जनजातीय समुदाय भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं. इस समुदाय का इतिहास काफी समृद्ध रहा है. विश्व स्तर पर इसकी अमिट पहचान रही है. जनजातियों की कला, संस्कृति, लोक साहित्य, परंपरा एवं रीति-रिवाज समृद्ध रही है. जनजातीय गीत एवं नृत्य बहुत मनमोहक है. ये प्रकृति प्रेमी हैं. इसकी झलक इनके पर्व-त्यौहारों में भी दिखती है. इस राज्य में ही विभिन्न अवसरों पर देखते हैं कि जनजातियों के गायन और नृत्य उनके समुदाय तक ही सीमित नहीं हैं, सभी के अंदर उस पर झूमने के लिए इच्छा जगा देती है. राज्यपाल शुक्रवार को डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान, द्वारा आयोजित आदिवासी दर्शन सेमिनार के उद्घाटन समारोह में बोल रही थीं. उन्होंने कहा कि झारखंड राज्य में 3.25 करोड़ से अधिक की आबादी में जनजातियों की संख्या आबादी का लगभग 27 फीसदी है. राज्य में 32 प्रकार की अनुसूचित जनजातियां हैं, जिनमें पीवीटी भी सम्मिलित हैं। जनसंख्या का अधिकांश हिस्सा ग्रामों में निवास करते हैं.
गंभीर चर्चाएं करना सराहनीय
राज्यपाल ने कहा कि आज से प्रारंभ इस तीन दिवसीय सेमिनार का विषय ‘‘आदिवासी दर्शन’’ है. आदिवासी समुदायों के धर्म-दर्शन, रीति-रिवाज़ों पर बड़े पैमाने पर गंभीर चर्चाएं करना सराहनीय है. किस प्रकार वे प्रकृति के संरक्षक हैं और प्रकृति की पूजा करते हैं. हर समय खुश रहते हैं और खुश रहने की सीख देते हैं. दर्शनशास्त्र की ज्ञान-शाखा में ‘‘आदिवासी-दर्शन’’ पर वृहत् चर्चा की जा सकती है. इस ज्ञान-शाखा को यह विषय नया-सा लगता रहा है. इसलिए भी जरूरी है कि देश-दुनिया के विद्वान इस पर गम्भीरतापूर्वक चर्चा करें, इस विषय पर निरन्तर लिखें, इस विषय से जुड़ी पुस्तकें प्रकाशित हों ताकि ‘आदिवासी दर्शन’ भी दर्शनशास्त्र की विद्वतमंडली के ध्यान में आए और उस ज्ञान-शाखा में वैदिक और गैर-वैदिक बौद्ध-जैन दर्शन की तरह अपनी जगह बना सके.
अनुसूचित जनजातियों के पास विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न विधा होती है
अनुसूचित जनजातियों के पास विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार की विधा होती है. वे विभिन्न प्रकार की व्याधियों के उपचार की औषधीय दवा के सन्दर्भ में जानते हैं. हम सब जानते हैं कि आदिवासी लोग विभिन्न प्रकार के बीमारियों में, जंगलों से विभिन्न प्रकार के औषधि लाकर उपचार करते थे. लेकिन ये लिपिबद्ध नहीं हो सका जिस कारण आज का समाज ये लाभ न के बराबर उठा रहा है. अतः इस पर शोध कर इसे लिपिबद्ध करने की आवश्कयता है. अभी तक जनजातीय समुदायों के अध्ययन के विषय उनकी बाहरी गतिविधियों, बाह्य जगत से उनके सम्बन्धों, अपने समाज में उनके व्यवहारों तक ही सीमित रहे हैं. विशेष तौर पर मानवशास्त्री आदिवासी समाज के धार्मिक अनुष्ठानों, पूजा पद्धतियों, जन्म से मृत्यु तक के संस्कारों, सामाजिक संगठनों, पर्व-त्यौहारों, किस्से-कहानियों-गीतों, तथा नृत्य की शैलियों पर ही अध्ययन करते आ रहे हैं.
आदिवासी-दर्शन को एक ज्ञान-शाखा के रूप में प्रबलता से स्थापित करना होगा
राज्यपाल ने कहा कि एक रूढ़ि-सी बन गई है कि आदिवासियों की कला, धार्मिक अनुष्ठान, आर्थिक गतिविधियाँ, सामाजिक सम्बन्धों और प्रकृति को पूजने के तरीकों तक ही शोध, अध्ययन, लेखन और चर्चा को सीमित रखा जाए. आदिवासी समुदायों की प्रकृति और परमात्मा के बीच के सम्बन्धों के देखने का जो नजरिया है, जो अलग-अलग मौलिक चिन्तन हैं, उन पर अभी तक गंभीरतापूर्वक विचार, चर्चा, शोध, लेखन अपेक्षित नहीं हुआ है. ऐसे में, आदिवासी-दर्शन को एक ज्ञान-शाखा के रूप में प्रबलता से स्थापित करने की दिषा में ध्यान देना होगा. संताल समाज ने उन्हंह ठाकुर जीयू, मरांग बुरू, जाहेर ऐरा आदि कहा तो मुण्डा समाज ने सिंड़बोंगा, हातुबोंगको, इकिरबोंगा, उरांव समाज ने धरमे, चाला पच्चो, पहाड़िया समुदाय ने बड़े गोसाईं, विल्प गोसाईं आदि सम्बोधन दिए हैं.