नेहा,
रांची: नीदरलैंड के रहने वाले हैं पॉल स्ट्रेमर. झारखंड से उनका गहरा रिश्ता है. यहां मिलने वाले ‘हड़िया’ के स्वाद से वे झारखंड खींचे चले आए. रांची के आड्रे हाउस में चले तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय आदिवासी सम्मलेन में वे शिरकत करने आये थे. पॉल एक मनोवैज्ञानिक है. उन्होंने आदिवासियों की ‘हो’ भाषा पर निबंध लिखा है. आदिवासियों के बारे में अध्ययन भी किया है.
नीदरलैंड में रहकर ऊब चुके थे
सम्मेलन के दौरान BNN BHARAT से बातचीत करते हुए उन्होंने बताया कि वे नीदरलैंड में काफी सालों से रहकर ऊब चुके थे. इसीलिए उन्होंने भारत आने की सोची. यहां कुछ जगहों से घूमकर झारखंड के रांची पहुंचे. पॉल बताते हैं कि मेरा रांची भ्रमण का अनुभव बहुत अच्छा रहा. यहां के आदिवासियों के संपर्क में आया और उनसे मिलकर बहुत ही प्रभावित हुआ.
सबसे अलग हटकर है
पॉल ने बताया कि आदिवासियों से मिलने के बाद उन्होंने यहां के लोकल ड्रिंक ‘हड़िया’ का पहली बार स्वाद चखा. उन्हें इसका स्वाद इतना अच्छा लगा कि वे इस ड्रिंक के फैन हो गये. वे बताते हैं कि हड़िया के स्वाद के आगे अन्य मदिरा कहीं नहीं टिकता है. बातचीत में उन्होंने कहा कि यहां के लोग बहुत ही अच्छे हैं. लोगों का व्यवहार बहुत अच्छा है. यहां का खाना स्वांदिष्ट है.
ऐसे बनता है हड़िया
हड़िया चावल से बनता है. इस प्रक्रिया में ‘रानू’ नामक एक जड़ी को भी मिलाया जाता है. विधि के अनुसार, सर्वप्रथम चावल को पकाया जाता है. इसके ठंडा होने के बाद इसे बड़े बर्तन में डाला जाता है. उसके बाद इस पसरे हुए भात में रानू नामक जड़ी के पाउडर को मिलाया जाता है. इसे मिलाकर बर्तन में फर्मेन्टेशन के लिए छोड़ दिया जाता है. जाड़े के दिनों में सिर्फ चावल (भात) और ‘रानू’ के मिश्रण को हड़िया के रूप में तैयार होने में चार से पांच दिन लग जाते हैं. गर्मी में यह दो से तीन दिनों में तैयार हो जाता है. इसके बाद पानी डालकर उसे मिलाया जाता है. फिर सेवन के लिए हड़िया तैयार हो जाता है.