नीता शेखर,
रांची: इस बार होली के अवसर पर हमें वृद्धा आश्रम जाने का मौका मिला. हमारा एक क्लब है जो समाज सेवा भी करता है. उसी के तहत हम सब वहां बुजुर्गों के साथ होली का त्योहार मनाने गए. हमें मौका भी मिला उनके साथ दो-तीन घंटे बिताने का. हम लोगों ने उनके साथ खुशियां बांटी और मस्ती भी किया पर वहां से आने के बाद रात भर नींद नहीं आई.
सोचती रही, “कैसी विचित्र दुनिया है अपने ही मां-बाप को लोग कैसे वृद्धा आश्रम में छोड़ देते हैं” क्या अमीर क्या गरीब सबके वही हालात थे. गरीब तो चलो गरीब है मगर अमीर उनका क्या? आज बदलती हुई इस दुनिया में ऐसा लगा परिवार की नहीं पैसे की अहमियत ज्यादा है.
वक्त कभी किसी के लिए नहीं रुकता है. वह चलता जाता है. उसी वक्त के साथ चलते हुए बच्चे, बच्चे से फिर युवा, युवा, से फिर मां बाप बनने की जिम्मेवारी, फिर उनको पढ़ाने लिखाने की जिम्मेवारी, यह सब निभाते निभाते ये मां-बाप कब बूढ़े हो जाते हैं पता ही नहीं चलता. फिर वही बच्चे जिनके लिए मां-बाप पूरी जिंदगी उनको बनाने में लगा देते हैं बाद में उनको अपनी सुविधा के लिए वृद्धा आश्रम में छोड़ जाते हैं पर उस समय उन्हें एहसास नहीं होता, काल का पहिया घूमता रहता है, चक्र चलता रहता है, वह घूमता रहता है. उसके किरदार जरूर बदल जाते हैं पर बदलने वाले किरदार उस समय यह नहीं समझ पाते कि हमें इसी स्थिति में एक दिन आना है.
अगर आदमी उनकी कहानी लिखने बैठे तो उनका अंत ही ना हो पर मैं आपको एक दो ऐसी कहानी बताती हूं जिसे सुनकर आपका मन भी व्याकुल हो उठेगा.
मुझे वहां एक बुजुर्ग औरत मिली. उसने अपनी कहानी सुनाई तो मेरी आंखें भर आई. उसके पति के पास बहुत धन दौलत और पैसे थे मगर उनके बच्चे नहीं थे. पहले तो चाचा के बच्चों ने उनकी खूब सेवा की. फिर धीरे-धीरे सारी प्रॉपर्टी अपने नाम करा अपने चाचा को अपने पास रख लिया और चाची को आश्रम में छोड़ दिया क्योंकि चाचा से उनका खून का रिश्ता था. चाची से तो खून का रिश्ता नहीं था. इतना बताते बताते रोने लगी. उनसे कोई मिलने भी नहीं आता था. पति के रहते हुए भी वह बेचारी हो गई थी. बेघर हो गई थी मैं भी बहुत देर तक सोचती रही क्या ऐसा है हमारा समाज पैसा ही सब कुछ है.
फिर मैं एक बुजुर्ग से मिली. देखने में वह काफी रोबदार और शांत प्रवृति के लग रहे थे. उन्होंने बताया वह किसी बड़ी कंपनी में काफी उच्च पद पर आसीन थे. उनके दो बच्चे थे. उनकी पत्नी का देहांत बच्चों के बड़े होने से पहले ही हो चुका था. उन्होंने बच्चों की वजह से दूसरी शादी नहीं की. जब बच्चे लायक हो गए तो उन्होंने उन सब की शादी वगैरह कर दी.
दोनों बेटे बाहर ही नौकरी करते थे. उनके पास भी पैसों की कमी नहीं थी. गाड़ी बंगला सब कुछ था और अपना पेंशन तो था ही. उन्होंने सोचा था चलो जब रिटायर हो जाएंगे अपने बच्चों के साथ खुशी-खुशी रहेंगे. सोचने से क्या होता है “वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है” उन्होंने अपनी सारी प्रॉपर्टी अपने दोनों बच्चों में बांट दी. उनको तो पेंशन मिलता ही था. हाथ में प्रॉपर्टी आते ही ऐसे गायब हुए दोबारा दिखाई नहीं दिए. आज उनका सहारा बना वृद्धा आश्रम. इतना बताते बताते उनकी आंखों से आंसू बह चले. आज 10 साल हो गए बच्चे कभी भी मिलने नहीं आए. जिस पिता ने अपने बच्चों के लिए पूरी जिंदगी लगा दी. वहीं बच्चे अपने पिता को उम्र के आखिरी पड़ाव पर अकेला छोड़ कर चले गए.
लोग कहते हैं समाज बदल रहा है. लोग बदल रहे हैं. अगर बदलना इसे कहते हैं तो धन्य है वह मां बाप जिन की संताने नहीं है. कम से कम उन्हें यह एहसास तो नहीं होता कि छोड़ना किसे कहते हैं.
उज्जवल हो सकता है बुजुर्गों का भविष्य अगर हम उन्हें आश्रम छोड़ने के बजाय उन्हें थोड़ा मान सम्मान और प्यार दें.
थोड़ी सी खुशियां और मान सम्मान देकर आप अपने लिए वरदान मांग सकते हैं. फिर भी अगर हम बुजुर्गों को वृद्धा आश्रम में भेज रहे हैं तो सोच लेना चाहिए कि उसका अगला पड़ाव हमारा ही है क्योंकि हम स्वयं के लिए स्वयं ही रास्ता बनाते हैं.
मैं रात भर सोचती रही आखिर बुजुर्गों के इस हालात के जिम्मेवार और कोई नहीं इनके बच्चे ही हैं. जिन्हें आप बड़े प्यार से विषम परिस्थितियों में पालते हैं वही बच्चे उन्हें वृद्धा आश्रम का रास्ता दिखा देते हैं. यह परिणाम है भारतीय समाज का, पश्चिमी सभ्यता की ओर बढ़ने का, पश्चिमी सभ्यता अपनाइए पर बुजुर्गों को अकेला छोड़कर नहीं. सोचिए हम भी सोचते हैं आप भी सोचे………………..