सोनाली सिंह,
रंगभेद- यह वह शब्द है जो याद दिलाता हैं 1948 में दक्षिण अफ्रीका में नेशनल पार्टी के द्वारा जारी की गई अलगाववादी की नीति की. नेल्सन मंडेला, महात्मा गांधी जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की जिन्होंने इसके विरुद्ध आवाज उठाई और लंबे संघर्ष के बाद श्वेतों के नस्ली भेदभाव से अश्वेतों को मुक्ति दिलाई तथा अश्वेतों द्वारा लोकतांत्रिक शासन स्थापित कर रंगभेद की नीति का अंत किया.
पर कानूनी नियम कहां लोगों के विचारों में फैले मैल को हटा पाई है. यह कटु विचार कब अफ्रीका से ब्रिटेन और फिर अमेरिका तक पहुंच, लोगों के मन में घर कर गई यह बात बता पाना शायद थोड़ा मुश्किल होगा.
वैश्वीकरण ने लोगों के लिए व्यापार के रास्ते तो खोल दिए पर नस्लभेद और रंगभेद की विचारधारा से ग्रस्त लोगों के मन में अराजकता के रास्ते भी खोल दिए. शायद यही कारण है कि आज भी दुनिया के कई हिस्सों में नस्लवादी सोच व्याप्त है.
संयुक्त राज्य अमेरिका जिसके नाम में ही एकता की भावना झलकती हो, आज इस नस्लीय विचारधारा की आग में जल रहा है. सोचने वाली बात यह है कि अमेरिका जैसा विकसित देश जहां के नागरिकों को सारे मौलिक अधिकार प्राप्त है. जहां लोग कम उम्र में ही आत्मनिर्भर हो जाते हैं.
वहां के युवा इस हीन भावना से कैसे ग्रस्त हो गए ? क्या एक अश्वेत की मौत में इतना दम था कि वह पूरे अमेरिका को जला सके? शायद नहीं… दम था इस बात में कि एक श्वेत पुलिस द्वारा एक अश्वेत नागरिक मारा गया.
गौर से विश्लेषण करें तो यह रंगभेद की भावना शुरू से ही अमेरिका के कानूनों में नियमों की शक्ल में मौजूद थी, जिसे वहां की जनता चुपचाप जल्दी आ रही थी. पर कहते हैं ना जनता के मन में दबे आक्रोश उस बारूद के पहाड़ के समान होता जो दिखता तो शांत है पर चिंगारी की एक तीली भी पूरे शहर को खाक करने का सक्षम रखती.
अगर नियमों की बात करें तो अमेरिका के पुलिस को शक के आधार पर किसी पर भी कार्रवाई करने का अधिकार प्राप्त है. जिसमें अश्वेत आरोपी के पास श्वेत आरोपी के मुकाबले बचाव के ज्यादा मौके नहीं होते.
वर्ष 2015 -16 में स्कूलों से निकाले जाने वाले छात्रों में अश्वेत की संख्या 36% के करीब थी. वहीं किसी श्वेत नागरिक को नौकरी के लिए कॉल आने की संभावना अश्वेत की तुलना में 50% अधिक होते. इतना ही नहीं एक सर्वे के अनुसार ट्रैफिक पुलिस द्वारा रोके गए लोगों में 88% लोग अश्वेत थे.
शायद इसी मानसिकता का प्रभाव था कि कुछ दिन पहले पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई का शिकार एक अश्वेत था और इतने वर्षों से झेलते असमानता के विचारों ने दंगों की शक्ल ले ली. आग में घी का काम कोरोना वायरस ने भी किया.
कोरोना वायरस से हुए लॉकडाउन के चलते अमेरिका में लगभग चार करोड़ लोगों ने अपने रोजगार गवा दिए है. आर्थिक तंगी, बेरोजगारी और सरकार की गैर जिम्मेदाराना व्यवहार ने लोगों के मन में द्वेष व निराशा उत्पन्न कर दी है.
परिणामस्वरूप हिंसक प्रदर्शनों की आंच व्हाइट हाउस तक पहुंच चुकी है. न सिर्फ अमेरिका, बल्कि दुनिया के विभिन्न देशों में बने अमेरिकी दूतावास के सामने भी लोगों ने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया है.
हालात इतने बेकाबू हो चुके हैं कि प्रदर्शनों की आग अमेरिका के 140 शहरों तक पहुंच चुकी है, जिसे काबू में लाने के लिए 24 राज्यों में नेशनल गार्ड के करीब 17000 सैनिकों की तैनाती करनी पड़ी. अराजकता फैलने पर 3.5 लाख नेशनल गार्ड को भी अलर्ट पर रखा गया है.
अब यह प्रदर्शनकारियों की जीत और प्रशासन की हार ना कहें तो क्या कहें जिसने विश्व के सबसे शक्तिशाली कहे जाने वाले व्यक्ति को भी बंकर में छुपने को मजबूर कर दिया हो. यदि अमेरिका जल्द ही इन प्रदर्शनों को शांत न कर सका तो कोरोना और चीन के साथ-साथ यह भी उसके प्रमुख मुद्दों में शामिल हो जाएगा.
सेना द्वारा बलपूर्वक प्रदर्शनकारियों को चुप करा देना इस समस्या का हल नहीं है. इसके लिए नियमों में बदलाव के साथ-साथ लोगों के मन से भी इन कटु विचारधाराओं को निकालने का प्रयास करना होगा तभी जाकर अमेरिका सचमुच में संयुक्त कहला सकता.