रांची: आज के बच्चे जो कल के भविष्य हैं. लॉकडाउन में उनका कीमत वक्त जाया न हो, इसके लिए ऑनलाइन एसाइनमेंट ही बेहतर विकल्प सामने नजर आ रहा है. नई तकनीक के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की जरूरत है. इंटरनेट के जरिए पढ़ा कर उनका समय और भविष्य बचा सकते हैं. आम धारणा है कि प्राइवेट स्कूलों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों से अधिक होशियार होते हैं लेकिन ऐसा नहीं है. मॉडल स्कूलों में भी नई तकनीक के बेहतर प्रबंध किए जा रहे हैं. इसके समर्थन में कई लोग बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे भी दिखा सकते हैं.
लेकिन, आज इस बिंदू पर विचार करने की जरूरत है. पहली बात तो यह है कि प्राइवेट स्कूलों में बच्चों को दाखिला देने के पहले ही चुना जाता है. कई बार उन्हें चुने जाने के लिए कठिन परीक्षा भी आयोजित कराई जाती है. अब कठिन परीक्षाओं को पास करके आने वाले बच्चों को तो प्राइवेट स्कूलों ने पहले ही चुन लिया तो हो सकता है वे अपेक्षाकृत अधिक होशियार हों भी. फिर प्राइवेट स्कूलों में उन अमीर बच्चों को ही लिया जाता है, जिनके परिजनों को यदि लगा कि बच्चे की ट्यूशन भी जरूरी है तो वे उसकी ट्यूशन भी लगवा देते हैं. अब यदि इन सारी अतिरिक्त सुविधाओं को हटा लिया जाए तो बहुत संभव हैं कि प्राइवेट स्कूलों के नतीजे भी सरकारी स्कूलों जैसे ही रहें.
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गुणवत्ता का मतलब महंगी चीजों से लगाया जा रहा
यहां एक बात यह भी महत्त्वपूर्ण है कि स्कूल की गुणवत्ता का मतलब सामान्यत: महंगी बिल्डिंग, अंग्रेजी माध्यम और पढ़ाई के लिए काम आने वाली चीजों से लगाया जाने लगा है लेकिन, बहुत कम सरकारी स्कूलों में ऐसी व्यवस्थाएं मौजूद हैं. इसलिए, संभवत: प्राइवेट स्कूलों से सरकारी स्कूलों के मुकाबले की बातों का कोई मतलब नहीं रह जाता है. दूसरी तरफ, यह भी कहा जाता है कि सरकारी शिक्षक यदि सही ढंग से अपनी ड्यूटी निभाएं तो सरकारी स्कूलों को प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले सुधारा जा सकता है. यह कहते हुए इस हकीकत को भुला दिया जाता है कि उनके हिस्से में बच्चों को पढ़ाने के अलावा भी बहुत-सी ‘नेशनल ड्यूटीज’ हैं.
सरकारी स्कूल के शिक्षक चुनाव, जनगणना, पशुओं की गणना या ऐसे ही दूसरे कई कामों में व्यस्त रहते हैं. यह कहने में कैसी झिझक कि एक सरकारी शिक्षक के ऊपर काम का बोझ बढ़ रहा है.
खराब नतीजों के पीछे असंतुलित अनुपात भी
परीक्षा के खराब नतीजों के पीछे सरकारी शिक्षक और बच्चों के बीच का असंतुलित अनुपात भी जिम्मेदार है. आप सरकारी स्कूलों में बच्चों की भारी संख्या को देखिए, उसके मुकाबले आपको शिक्षकों की संख्या कुछ भी नहीं लगेगी. फिर प्रश्न यह भी है कि एक ऐसा परिवार जो अपने बच्चों की मंहगी पढ़ाई का बोझ उठा सकता है, उसके सामने ‘सबकी शिक्षा एक समान’ जैसी बातों का क्या मतलब रह जाता है ? उसे तो ऐसी बातें स्कूल चुनने की आजादी को रोकने जैसी लगेंगी ? इस प्रश्न को थोड़ा यूं करके देखें तो अमीर को स्कूल चुनने की आज़ादी है, गरीब को नहीं. आजादी का अर्थ तो गरीब से गरीब को शिक्षा पाने का हक देता है.
मूल प्रश्न यह है कि एक गरीब का बच्चा अपनी गरीबी की वजह से बराबरी और बेहतर शिक्षा से बेदखल क्यों रहे? खास तौर पर प्राथमिक स्कूल से. अब तो प्राथमिक स्कूल की पढ़ाई को मौलिक हक के रुप में अपना लिया गया है. फिर भी मोटे तौर पर कहा जाता है कि देश के सौ में से करीब आधे बच्चे प्राइमरी स्कूल नहीं जाते है.
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शिक्षा में कई स्तरों पर असमानताएं
सीधी बात है कि शिक्षा में कई स्तरों पर असमानताएं हैं. दूसरी तरफ निजीकरण की तीव्र गति के साथ सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दूरियां बढ़ रही हैं. इन परिस्थितियों में अलग-अलग वर्गों के बच्चों के हितों को देखना होगा. यदि ऐसा नहीं हुआ तो प्राइवेट सेक्टर का कारोबार तो फलेगा-फूलेगा, किंतु सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक असमानताएं दिन-ब-दिन बढ़ती जाएंगी. जब सभी बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे तो उनके बीच की असमानताओं के चलते दिक्कते नहीं आएंगी क्या? यह बात लोकतंत्र के दृष्टिकोण से फिट नहीं बैठती है. अब तो दुनिया भर की किताबों में समाज और स्कूल की विविधताओं को न केवल स्वीकार किया जा रहा है, उनका सम्मान भी किया जा रहा है. कई देशों जैसे अमेरिका या इंग्लैंड में अलग-अलग वर्गों से आने वाले बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं. वहां अलग-अलग योग्यता रखने वाले बच्चे एक साथ बैठते-उठते, रहते, रमते पढ़ते और लिखते हैं. सभी बराबरी के साथ बेहतर मौके तलाशते हैं. वहां की शिक्षा पब्लिक के हाथों में है. वहां के स्कूलों से ऊंच-नीच की सारी असमानताओं को हटा दिया गया है. वहां के स्कूलों में प्रवेश के पहले चुना जाना जरूरी नहीं है.
देश में निजी स्कूलों पर भरोसा
जबकि भारत में निजी स्कूलों पर ज्यादा भरोसा किया जाता है. इससे प्राइवेट सेक्टर से जुड़े लोगों को मनमाने तरीके से मुनाफा कमाने का मौका मिलता है. दूसरी तरफ कहने को सरकार की कई योजनाएं हैं. लेकिन, सबके अर्थ अलग-अलग हैं. जैसे कुछ योजनाएं शिक्षा के लिए तो कुछ महज साक्षरता को बढ़ाने के लिए चल रही हैं. इसकी जगह सरकार को एक ऐसे स्कूल की योजना बनानी चाहिए जो सारे अंतरों का लिहाज किए बगैर सारे बच्चों के लिए खुली हो.
अब प्रश्न है कि इस तरह से तो सरकारी स्कूलों में भी असमानताएं हैं? बिल्कुल, जैसे कि पहले कहा जा चुका है कि केंद्रीय कर्मचारियों के बच्चों के लिए केंद्रीय स्कूल, सैनिकों के बच्चों के लिए सैनिक स्कूल, मेरिट लिस्ट के बच्चों के लिए नवोदय स्कूल. बात साफ है कि सभी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ताएं अलग-अलग हैं. इसी तरह शिक्षक को चुने जाने के लिए भी अलग-अलग स्कूलों में योग्यता के अलग-अलग पैमाने रखे गए हैं. इसके बाद बात आती है कि समाज में जो भेदभाव है, वहीं तो स्कूल की चारदीवारी में है. इसलिए, समाज से स्कूल में घुसने वाले उन कारणों को तलाशना होगा, जो ऊंच-नीच की भावना बढ़ाते हैं. यदि समाज में समानता लानी ही है तो सबसे अच्छा तो यही रहेगा कि इसकी शुरूआत शिक्षा और बच्चों से ही की जाए. इसके लिए फिर दोहराना होगा कि सबके लिए एक समान स्कूल की बात करनी होगी. लेकिन, यह बात इतनी सीधी नहीं लगती है. जब पानी से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य तक की चीजों को बाजार में ला दिया गया हो तो यह बात बेतुकी लग सकती है. लेकिन, शिक्षा की जर्जर हालत को देखते हुए तो यह बात बड़े तुक की लगती है. सामाजिक न्याय, समरसता और बदलाव के लिए यही एक रास्ता है. इसमें देश भर के सभी बच्चों के लिए एक ऐसी व्यवस्था की वकालत की गई है, जिसमें हर वर्ग के बच्चे को बगैर किसी भेदभाव के एक साथ पढ़ने-बढ़ने का अधिकार सुरक्षित है. यही वजह है सबके लिए एक समान शिक्षा के अभाव में समाज के ताकतवर लोगों ने सरकारी स्कूलों को ठुकरा दिया है.