राहुल मेहता
रांची: वैश्विक महामारी कोरोना के कारण दीपक कार्यालय नहीं जा पा रहा था. वह अपना सारा काम अपने घर से ही निपटा रहा था. उसका काम कुछ ऐसा था कि कार्यालय नहीं जाने का कोई फर्क नहीं पड़ा और वह अपने सारे काम पहले की ही भांति घर से कर पा रहा था. परंतु घर से काम करने में कुछ और समस्याएं थीं. उसका प्रतिदिन घर के सदस्यों के साथ किच किच प्रारंभ हो गया था. घर के लोग उसे घर के कामों में हाथ बंटाने कहते और वह कार्यालय के काम की दुहाई दे अपनी असमर्थता जता देता. फिर क्या था पास पड़ोस के दूसरे मर्दों का उदाहरण दे उस पर आरोपों की बौछार शुरू हो जाती. दीपक चिंतित था करे भी तो क्या ?
अनुभव अग्नि के ताप का
उसकी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा था. महिलाओं के घरेलू काम के प्रति दृष्टिकोण इतनी सरल भी नहीं थी जो दीपक के समझ में आ जाता. सदियों से पुरुषों ने जो हथियार चलाया आज वही हथियार उन पर चल रहे थे. जिस अग्नि में महिलाएं सदियों से जल रही थी उसी अग्नि का ताप अब पुरुषों को महसूस हो रहा था और वे जलन से परेशान थे. आज तक तो महिलाओं के घरेलू काम को कोई तवज्जो नहीं दी गई. उनके काम को काम नहीं माना गया.
सामाजिक मानदंड से स्त्री-पुरुष दोनों प्रभावित होते हैं
फिर यह सामाजिक मानदंड समाज में सदियों से रहा है. इसी परिवेश में महिला हो या पुरुष सभी पले बढ़े हैं. अगर आज बदले परिस्थिति के कारण दीपक को लगता है कि लोग उसके घर से काम करने को समझ नहीं पा रहे हैं तो उसके लिए दोषी घर के सदस्य नहीं बल्कि वह मानसिकता है जिसने घरेलू काम को कभी काम नहीं माना.
वैश्विक महामारी कोरोना के कारण अन्य परिस्थितियां बदलेगी. जेंडर समता और समानता पर कार्य करने वाले साथियों के लिए भी यह एक आत्मावलोकन का समय है. पुरुषों के लिए भी यह उचित है की वह लिंग आधारित भेदभाव के दायरे से निकल अपनी भूमिका को फिर से निर्धारित करें, नहीं तो कल फिर प्रकृति उन्हें कोई नई सीख दे देगी. जो संभल गया वह खुश, नहीं तो दीपक की कहानी उनके घर की कहानी होगी.
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