रांची: जितिया पर्व संतान की सुख-समृद्धि के लिए रखा जाने वाला व्रत है. इस व्रत में निर्जला यानी कि (बिना पानी के) पूरे दिन उपवास किया जाता है. यह पर्व आश्विन माह में कृष्ण-पक्ष के सातवें से नौवें चंद्र दिवस तक तीन दिनों तक मनाया जाता है. यह पर्व उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में मनाया जाता है. आज जितिया का नहाय खाय है.
जितिया व्रत से संबंधित मान्यताएं
धार्मिक मान्यताओं की मानें तो महाभारत के युद्ध के दौरान पिता की मौत होने से अश्वत्थामा को बहुत आघात पहुंचा था. वे क्रोधित होकर पांडवों के शिविर में घुस गए थे और वहां सो रहे पांच लोगों को पांडव समझकर मार डाला था. ऐसी मान्यता है कि वे सभी संतान द्रौपदी के थे. इस घटना के बाद अर्जुन ने अश्वत्थामा गिरफ्त में ले लिया और उनसे दिव्य मणि छीन ली थी. अश्वत्थामा ने क्रोध में आकर अभिमन्यु की पत्नी के गर्भ में भी पल रहे बच्चे को मार डाला. ऐसे में अजन्मे बच्चे को श्री कृष्ण ने अपने दिव्य शक्ति से पुन: जीवित कर दिया. जिस बच्चे का नामांकरण जीवित्पुत्रिका के तौर पर किया गया. इसी के बाद से संतान की लंबी उम्र हेतु माताएं मंगल कामना करती हैं और हर साल जितिया व्रत को विधि-विधान से पूरा करती हैं.
तीज और छठ पर्व की तरह जितिया व्रत की शुरूआत भी नहाय-खाय के साथ ही होती है. इस पर्व को तीन दिनों तक मनाये जाने की परंपरा है. सप्तमी तिथि को नहाय-खाय होती है. नहाय-खाय के दिन नोनी का साग,झींगे की सब्जी, कांदे की सब्जी और मड़ुआ के आटे की रोटी ही महिलाएं ग्रहण करती है. उसके बाद दुसरे दिन अष्टमी तिथि को महिलाएं बच्चों की उन्नति और आरोग्य रहने की मंगलकामना के साथ निर्जला व्रत रखती हैं. और कथा सुनती है.
जिवितपुत्रिका व्रत कथा
यह माना जाता है कि एक बार, एक गरुड़ और एक मादा लोमड़ी नर्मदा नदी के पास एक हिमालय के जंगल में रहते थे. दोनों ने कुछ महिलाओं को पूजा करते और उपवास करते देखा, और खुद भी इसे देखने की कामना की. उनके उपवास के दौरान, लोमड़ी भूख के कारण बेहोश हो गई और चुपके से भोजन किया. दूसरी ओर, चील ने पूरे समर्पण के साथ व्रत का पालन किया और उसे पूरा किया. परिणामस्वरूप, लोमड़ी से पैदा हुए सभी बच्चे जन्म के कुछ दिन बाद ही खत्म हो गए और चील की संतान को लंबी आयु मिली.
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जीमूतवाहन
इस कहानी के अनुसार जीमूतवाहन गंधर्व के बुद्धिमान और राजा थे. जीमूतवाहन शासक से संतुष्ट नहीं थे और परिणामस्वरूप उन्होंने अपने भाइयों को अपने राज्य की सभी जिम्मेदारियां दीं और अपने पिता की सेवा के लिए जंगल चले गए. एक दिन जंगल में भटकते हुए उसे एक बुढ़िया विलाप करती हुई मिलती है. उसने बुढ़िया से रोने का कारण पूछा, जिस पर उसने उसे बताया कि वह सांप (नागवंशी) के परिवार से है और उसका एक ही बेटा है. एक शपथ के रूप में, हर दिन, एक सांप को एक फ़ीड के रूप में पछीराज गरुड़ को चढ़ाया जाता है और उस दिन उसके बेटे को उसका भोजन बनना था.
उसकी समस्या सुनने के बाद, जिमुतवाहन ने उसे सांत्वना दी और वादा किया कि वह अपने बेटे को जीवित वापस ले आएगा और गरुड़ से उसकी रक्षा करेगा. वह खुद को चारा के लिए गरुड़ को भेंट की जाने वाली चट्टानों के बिस्तर पर लेटने का फैसला करता है. गरुड़ आता है और अपनी अंगुलियों से लाल कपड़े से ढंके जिमुतवाहन को पकड़कर चट्टान पर चढ़ जाता है. गरुड़ को आश्चर्य होता है जब वह जिस व्यक्ति को फंसाता है वह प्रतिक्रिया नहीं देता है. वह जिमुतवाहन से उसकी पहचान पूछता है जिस पर वह गरुड़ को पूरे दृश्य का वर्णन करता है. गरुड़, जीमूतवाहन की वीरता और परोपकार से प्रसन्न होकर, सांपों से कोई और बलिदान नहीं लेने का वादा करता है. जिमुतवाहन की बहादुरी और उदारता के कारण, सांपों की जाती बच गई और तब से, बच्चों के कल्याण और लंबे जीवन के लिए यह उपवास किया जाता है.
वहीं, तीसरे दिन अर्थात नवमी तिथि को व्रत को तोड़ा जाता है. जिसे पारण भी कहा जाता है.