झारखंड : झारखंड में महागठबंधन करने वाले घटक दलों को आप बीती, लोकसभा चुनाव और पूर्व में अन्य राज्यों में हुए विधान सभा चुनाव से सीख लेनी चाहिए.
2015 बिहार विधान सभा में लालू नीतीश ने जोड़ी बनाकर कुछ महागठबंधन जैसा ही प्रयोग किया था. लेकिन यह जोड़ी सही से 6 महीने भी नहीं चल पाई और नीतीश भाजपा के खेमे में आकर खुद की सरकार बना ली. जो अभी तक चल रही है.
लोकसभा 2019 के कुछ राज्यों में बने महागठबंधन का अध्ययन भी जरूरी है. सबसे पहले उत्तर प्रदेश की बुआ-बबुआ की जोड़ी का जो हाल हुआ सो हुआ यह यादगार है यह जोड़ी तो चुनाव परिणाम घोषित होते ही टूट गई. इसमें बीएसपी 10, सपा 5 और सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस सिर्फ 1 पर सिमट गई. वहीं बिहार में कांग्रेस और राजद ने मिलकर महागठबंधन को स्वरूप दिया लेकिन यहां भी कांग्रेस को सिर्फ 1 सीट मिली और राजद का अस्तित्व तो ख़तम ही हो गया.
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जाने झारखंड से जुड़े उदाहरण :
यहां 2019 लोकसभा में जेएमएम, जेवीएम, राजद, और कांग्रेस मिलकर महागठबंधन बनाकर इतिहास रचने की कोशिश में थे, परन्तु ये सभी खुद इतिहास बनकर रह गए. कांग्रेस को 1, जेएमएम को 1, और जेवीएम राजद का तो अस्तित्व ही ख़त्म हो गया.
आंध्रप्रदेश में तो चंद्रबाबू नायडू को शायद कांग्रेस के साथ मिलने का हर्जाना भुगतना पड़ गया. अभी सबसे हालिया उठालपुथल तो कर्नाटक में हुआ. मिलिजुली सरकार 1 वर्ष का भी कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई.
विगत 5 वर्ष पहले वोट बैंक की राजनीति का परसेप्शन बना हुआ था. पार्टियां जातीय समीकरण को आधार मानकर अपना वोट बना रही थी और इसी पर कई वर्षों से कायम थी. इस निमनकोटी की राजनीति को मोदी के राष्ट्रवादी राजनीति ने गलत साबित कर दिया है.
2014 शायद वोट बैंक की गिरी हुई राजनीति का अंतिम दौर रहा. 2019 में पुनः मोदी के आ जाने से अब यह साफ होता जा रहा है, कि आप अगर पार्टियों को जिताना चाहते है तो राष्ट्रवाद की राजनीति ही करनी होगी. महागठबंधन के घटक दलों को चाहिए कि वह स्वतंत्र रह कर राष्ट्रवादी मुद्दे, जनता के मूल मुद्दों पर चुनाव लड़े ना कि जातीय समीकरण पर, तभी उनकी जीत की संभावना बनती दिख रही है.