नीता शेखर,
याद आती है वह मायके की गलियां, वह बचपन, वह सखियां, जिन्हें हम छोड़ आए. याद आती है मायके की अलसाई, अल्हड़पन वो नखरे जो हम किया करते थे.
आज हम सब उसे बहुत पीछे छोड़ आए हैं ससुराल कितना भी अपना हो पर जो बाबुल के घर में अपनापन था, वह कहीं नहीं मिलता. वह भाई-बहन के झगड़े फिर आपस में खेलना लड़ना झगड़ना सब कुछ तो छूट जाता है. मां का दुलार, पापा का प्यार, पापा का डांटना, फिर मां का लाड दिखाना.
एक ही दिन में जब बेटियां ब्याह कर ससुराल आ जाती है, ससुराल में भी सब कुछ मिलता है पर नहीं मिलता तो वह अपनापन…. जिसकी चाहत लिए बेटियां अपने मायके को छोड़ आती है.
बहुत खुशनसीब होती हैं वह जिन्हें मायके जैसा ससुराल मिल जाता है. यह दर्द भरी दास्तान उम्र के 80 साल में भी पहुंच जाओ और किसी औरत से पूछो तो उनको अपना मायका ही याद आता है और मायके के नाम से एक अपनेपन का एहसास होता है.
दुनिया में सब कुछ मिल जाता है नहीं मिलता है तो मायके की गलियां जिन्हें हम छोड़ आए. “आखिर क्यों होता है ऐसा बेटीयों के साथ ही”.जब तक बेटियां मायका में रहती है ना रिश्तों की फिकर ना पहचान की फिक्र. मगर जैसे ही बेटियां अपने मायके से विदा हो जाती है पूरी जिंदगी लग जाती है रिश्ते बनाने और सहेजने में.
फिर भी वह अपनापन नहीं होता. हर बेटी मां होती है और हर मां एक बेटी होती है फिर भी उम्र के आखिरी पड़ाव में भी उसे अपना मायका ही याद आता है. दुनिया के सारे सुख संपत्ति एक तरफ और मायका का प्यार एक तरफ. छोटी सी चोट लग जाए तो मां के आंचल में ऐसा लगता है मानो सारा दुख दर्द ठीक हो गया.
यह कैसी विडंबना है कि शादी के बाद बेटियां मायके के लिए छुप छुप के रोती है अपना दर्द किसी से कह नहीं पाती. बेटियों का जन्म तो मायके में होता है, पर यह भी क्या रिवाज है अर्थी ससुराल से ही निकलती है.
आखिर बेटियों का ही जीवन दो भागों में क्यों बंटा है. इसका कोई जवाब नहीं है और शायद हो भी ना. यह रिवाज सदियों से चली आ रही है और इसको कोई तोड़ भी नहीं सकता, क्योंकि हमारी परंपरा यही है.
लेकिन परंपरा बनाने वाले ने यह नहीं सोचा कि बेटियों के दिल और दिमाग पर इसका असर कितना होगा. पूरी जिंदगी इसी मझधार में फंसी रहती है.
भोजपुरी में एक गाना है “गईया के समान बेटी घर में रखाय, एक से खुले तो दुजे खुटवा बधाए”. सही तो है हम बेटियों की स्थिति ऐसी ही है, ना मायके का मोह कम होता है ना ससुराल में अपनापन मिलता है.
सदियों से चली आ रही है यह रीत… ना जाने कितनी बार सुना होगा वनवास मिली राम को सीता को भी जाना पड़ा और लौट कर आने के बाद ससुराल छूटा तो सीता का ही क्योंकि एक के कहने पर उन्हें फिर से घर छोड़ना पड़ा.
ऐसा ही द्रौपदी का स्वरूप. युधिष्ठिर ने हारा राजपाट और द्रौपदी, लेकिन भरी सभा में द्रोपदी को ही सजा मिली और एक बार मायका छूटा तो दोबारा नहीं जा पाई. शायद इसलिए बेटियों को त्याग की मूर्ति कहा जाता है पर यह कैसी त्याग है? बेटियां जिंदगी भर इसी धुंध में रहते हुए इस संसार से विदा हो जाती हैं.
फिर पीढ़ी दर पीढ़ी ये मायके की कहानी चलती ही रहती है और चलती रहेगी. जब तक यह संसार है कभी किसी बेटी का ना मायका होगा ना ससुराल में अपनापन.
कहते हैं इस दुनिया में औरत ही है जो सारे गमों और परेशानियों को झेलते हुए सब दर्द को सहन कर लेती है. उसकी दर्द को ना तो कोई समझा है और ना समझ पाएगा.