राहुल मेहता,
रांची: जेएनयू देश में चर्चा का केंद्र बिंदु बना हुआ है और जेएनयू के केंद्र में हैं दो महिलाएं – आइशा घोष और दीपिका पादुकोण. जेएनयू को दीपिका के समर्थन के कारण उसके छपाक फिल्म के बहिष्कार का और समर्थन का अभियान सा छिड़ गया है.
सवाल यह नहीं कि दीपिका सही है या गलत. सवाल यह है कि विरोध का केंद्र वही क्यों बनी? सुनील शेट्टी एवं वरूण धवन ने भी तो जेएनयू के वामपंथी छात्रों का समर्थन किया था. फिर उनका विरोध क्यों नहीं हो रहा है? क्या सिर्फ इसलिए तो नहीं कि वे पुरुष हैं?
विरोध और अभिव्यक्ति की आजादी हर किसी का अधिकार है, लेकिन विरोध करने के लिए भी तथ्यों की जरूरत होती है, और आज के अधिकतर लोग तथ्य जुटाने का जहमत भी नहीं उठाना चाहते.
उन्होंने तो बिना जाने समझे हिंदू-मुस्लिम कर फिल्म का बहिष्कार करने का फतवा जारी कर दिया. कुछ लोगों ने गाली गलौज पर उतर कर अपने मानसिक दिवालियापन का परिचय भी दे दिया. भला नेता पीछे क्यों रहते? उन्होंने भी मुंबई तक ही सीमित रहने का सलाह दे डाला पर वे भूल गए कि उनके टीम में भी जबकि फिल्मजगत के अनेक लोग हैं.
तथ्य ही आरोपों का भरमार
कुछ लोग तो ऐसे हैं जो मिरर इमेज को हथियार बना आइशा घोष को नौटंकीबाज करार देते हैं. न्यूनतम महिला गरिमा का भी ध्यान नहीं रखती.
चाणक्य नीति
जरूरत हो तो विरोध करें, चाहे विरोधी स्त्री हो या पुरुष. प्रतिकार साहस के साथ करें, तथ्यों के साथ करें. विरोध में पूर्वाग्रह के बजाए तथ्यों का ध्यान ध्यान रखें. विरोध के लिए भी साहस की जरूरत होती है. असत्य पर आधारित साहस भी काम नहीं आता और बिना तथ्यों का कोई विरोध सफल नहीं होता.