रांची: विधानसभा के एक दिवसीय विशेष सत्र में बुधवार को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा कि झारखंड आदिवासी बहुल क्षेत्र है. यहां की एक बड़ी आबादी सरना धर्म को मानने वाली है. सरना धर्म को मानने वाले लोग प्राचीन परंपराओं एवं प्रकृति के उपासक हैं. प्राचीनतम सरना धर्म का जीता-जागता ग्रंथ जल, जंगल, जमीन और प्रकृति है. सरना धर्म की संस्कृति पूजा पद्धति, आदर्श एवं मान्यताएं प्रचलीत सभी धर्मां से अलग है.
आदिवासी समाज प्रकृति के पुजारी है. उन्होंने कहा कि पेड़ों, पहाड़ों की पूजा तथा जंगलों को संरक्षण देने को ही ये अपना धर्म मानते हैं. आज पूरा विश्व बढ़ते प्रदूषण एवं पर्यावरण की रक्षा को लेकर चिंतित है. वैसे सम य में जिस धर्म की आत्मा की प्रकृति एवं पर्यावरण की रक्षा है. उसको मान्यता मिलने से भारत ही नहीं, पूरे विश्व में प्रकृति प्रेम का संदेश फैलेगा.
अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत-
उन्होंने कहा कि आदिवासी सरना समुदाय पिछले कई वर्षों ने अपने धार्मिक अस्तित्व की रक्षा के लिए जनगणना कोड में प्रकृति पूजक सरना धर्मावलंबियों को शामिल करने की मांग को लेकर संघर्षरत है. प्रकृति पर आधारित आदिवासियों के पारंपरिक धार्मिक अस्तित्व के रक्षा की चिंता निश्चित तौर पर एक गंभीर सवाल है. आज सरना धर्म कोड की मांग इसलिए उठ रही है कि प्रकृति आदिवासी सरना धर्मावलंबी अपनी पहचान के प्रति आश्वस्त हो सके. यह एक मुहिम है. आदिवासी सरना धर्मावलंबियों की घटती हुई जनसंख्या एक गंभीर सवाल है.
आदिवासी जनसंख्या फिर कम हुआ-
हेमंत सोरेन ने कहा कि जनगणना 2001 के बाद आदिवासी जनसंख्या का प्रतिशत फिर एक बार फिर कम हुआ, तो यही प्रतिक्रिया सामने आयी है कि आखिरकार आदिवासियों की जनसंख्या में लगातार कमी क्यों हो रही है. कैसे, पिछले आठ दशकों के जनगणना के आकलन इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि आदिवासी जनसंख्या का प्रतिशत लगातार कम हुआ. आजादी के बाद से देश में उत्पन्न बड़ी समस्याओं में बढ़ती जनसंख्या देश के सामने बड़ी चुनौती है.
लगभग चार फीसदी की कमी-
वर्ष 1931 से 2011 के आदिवासी जनसंख्या के क्रमिक विश्लेषण से यह पता चलता है कि पिछले आठ दशकों में आदिवासी जनसंख्या का 38.03 से घटकर सन 2011 में 26.02 प्रतिशत हो गया. इन आठ दशकों में आदिवासी जनसंख्या में तुलनात्मक रूप से 38.03 से घटकर सन 2011 में 26.02 प्रतिशत हो गया. इन आठ दशकों में आदिवासी जनसंख्या में तुलनात्मक रूप से 12 प्रतिशत की कमी आयी है, जो एक गंभीर सवाल है.
जनगणना के आंकड़ों से यह पता चला है कि प्रत्येक वर्ष झारखंड की कुल आबादी में वृद्धि कर समुदायों की वृद्धि दर से अत्यंत कम है. सन 1931 से 1941 के बीच जहां आदिवासी आबादी की वृद्धि दर 13.76 है, वहीं गैर आदिवासी आबादी की वृद्धि दर 11.13 है. सन 1951 से 1961 के बीच आदिवासी की वृद्धि दर 12.71 प्रतिशत है, वहीं अन्य समुदायों की वृद्धि दर 23.62 प्रतिशत है.
क्रमशः 15.89 प्रतिशत है, वहीं अन्य समुदाय के जनसंख्या की वृद्धि दर 26.01 प्रतिशत है. सन 1971 से 1981 के बीच आदिवासी जनसंख्या की वृद्धि दर 27.11 है. इसी प्रकार 1981 से 1991 के बीच आदिवासी जनसंख्या की वृद्धि दर 13.41 हैं, वहीं तुलनात्मक रूप और गैर आदिवासी की वृद्धि दर 17.19 प्रतिशत तथा अन्य समुदाय की जनसंख्या वृद्धि दर 25.65 प्रतिशत है.
जनगणना लीन पीरियड में-
उन्होंने कहा कि इस जनसंख्या में कमी का प्रमुख कारण यह है कि जनगणना की कानूनी प्रक्रिया के मुताबिक 10 वर्षों में जनगणना का कार्य 9 फरवरी तथा 28 फरवरी के बीच किया जाता है. विडंबना यह है कि झारखंड में यह समय लीन पीरियड अथवा खाली समय होता है, जब आदिवासी अपने फसल के कार्यों से मुक्त होकर वर्ष के बाकी महीनों की आजीविका के लिए अन्य प्रदेशों में पलायन कर जाते हैं.
स्पष्ट है कि जनगणना में ऐसे लोगों की गणना अपने-अपने गांवों में नहीं हो पाती है. यह तर्क दिया जा सकता है कि जो लोग जनगणना के वक्त अपने क्षेत्रों में नहीं होते, उनकी गणना उस समय में रहने की जगह में हो जाती है. परंतु सवाल सिर्फ गणना का नहीं है. सवाल है कि वैसे आदिवासियों की गणना जो प्रदेश से बाहर होते हैं, आदिवासी के रूप में ना होकर सामान्य जाति के रूप में कर ली जाती है.
आदिवासी की नीतियों पर प्रभाव-
मुख्यमंत्री ने कहा कि आदिवासियों की जनसंख्या में गिरावट के कारण संविधान के विशेषाधिकार के तहत पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आदिवासी की नीतियों में प्रतिकूल प्रभाव स्वाभाविक है. पंचायत उपलबंध (अनुसूचित विस्तार अधिनियम) 40/199 की धारा 4 (ड) के अनुसार, अनुसूचित क्षेत्र में प्रत्येक पंचायत के विभिन्न पदों पर आदिवासियों के लिए आरक्षित किये जाने का आधार जनसंख्या को ही माना गया है.
पिछले कई वर्षों के पांचवीं अनुसूचित क्षेत्रों में से ऐसे जिलों को हटाने की मांग की जा रही हैं, जहां आदिवासियों की जनसंख्या में कमी आयी है. इस प्रकार जनसंख्या में आने वाली कमी आदिवासियों के लिए दिये जाने वाले संवैधानिक अधिकारों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा. इन परिस्थितियों के मद्देनजर हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, जैन धर्मावलंबियों से अलग सरना अथवा प्रकृति पूजक आदिवासियों की पहचान के लिए तथा उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए अलग सरना कोड अत्यावश्यक है.
दूरगामी अच्छे परिणाम होंगे-
मुख्यमंत्री ने कहा कि अगर सरना कोड मिल जाता है, तो इसका दूरगामी अच्छे परिणाम प्राप्त होंगे. पहला तो यह सरना धर्मावलंबी आदिवासियों की गिनती स्पष्ट रूप से जनगणना के माध्यम से हो सकेगी. आदिवासियों की जनसंख्या का स्पष्ट आकलन हो सकेगा. इसके अलावा आदिवासियों को मिलने वाली संवैधानिक अधिकारों का लाभ प्राप्त हो सकेगा.
साथ ही आदिवासियों की भाषा, संस्कृति, इतिहास का संरक्षण और संवर्धन होगा. उन्होंने बताया कि सन 1871 से 1951 तक की जगणना में आदिवासियों का अलग धर्म कोड था, लेकिन 1961 से 62 के जनगणना प्रपत्र से इसे हटा दिया गया. वर्ष 2011 की जनगणना में देश के 21 राज्यों में रहने वाले लगभग 50 लाख आदिवासियों ने जनगणना प्रत्र में सरना धर्म लिखा है.
आंदोलन करते आ रहे हैं-
हेमंत सोरेन ने कहा कि झारखंड में सरना धर्म को मानने वाले लोग वर्षों से सरना धर्म लागू करने के लिए आंदोलन करते आ रहे हैं. सरना धर्म को लागू करने के लिए वर्तमान और पूर्व सदस्यों समेत कई आदिवासी संगठनों द्वारा ज्ञापन के माध्यम से सरकार से अनुरोध किया गया है. इसलिए आदिवासियों के लिए अलग आदिवासी व सरना धर्म कोड का प्रावधान करने के लिए राज्य सरकार के संकल्प पर अनुसमर्थन प्राप्त कर केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजने की सहमति हो.