अखंड भारत के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक, जिसे शारदा विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है, अपनी लिपि के लिए काफी प्रसिद्ध शारदा पीठ ही है और कहा जाता है कि पहले इसमें लगभग 5,000 विद्वान थे और उस समय का सबसे बड़ा पुस्तकालय था. शारदा पीठ की नींव उस समय कि भी मानी जाती है जब कश्मीरी पंडितों ने अपनी प्राकृतिक सुंदरता की भूमि को शारदा पीठ या सर्वज्ञानपीठ के रूप में तब्दील किया था.
शारदा पीठ का अर्थ है “शारदा की भूमी या गद्दी या जगह” जो हिंदू देवी सरस्वती का कश्मीरी नाम है. शारदा पीठ को विद्या का एक प्राचीन केंद्र भी कहा जाता है जहाँ पाणिनि और अन्य व्याकरणियों द्वारा लिखे गए ग्रंथ संग्रहीत थे. इसलिए, इस स्थान को वैदिक कार्यों, शास्त्रों और टिप्पणियों के उच्च अध्ययन का एक प्रमुख केंद्र माना जाता है. देवी शारदा को कश्मीरा-पुरवासनी भी कहा जाता है.
724 ईसवी से लेकर 760 ईसवी तक ‘शारदापीठ’ देवी सरस्वती का प्राचीन मन्दिर हुआ करता था. इतिहासकारों के अनुसार कुषाण साम्राज्य के दौरान ये शिक्षा का प्रमुख केंद्र हुआ करता था. वर्तमान में ये पाक अधिकृत कश्मीर में शारदा के निकट किशनगंगा नदी (नीलम नदी) के किनारे स्थित है. ये भारत-पाक नियन्त्रण-रेखा के निकट स्थित है.
शारदा पीठ मुज़फ़्फ़राबाद से लगभग 140 किलोमीटर और कुपवाड़ा से भी लगभग 30 किमी की दूरी पर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) में नियंत्रण रेखा (LoC) के पास नीलम नदी के तट पर स्थित है.
कुछ प्राचीन वृत्तांतों के अनुसार, मंदिर की ऊंचाई 142 फीट और चौड़ाई 94.6 फीट है. मंदिर की बाहरी दीवारें 6 फीट चौड़ी और 11 फीट लंबी हैं. वृत्त-खंड 8 फीट की ऊंचाई के हैं. लेकिन अब अधिकतर ढांचा क्षतिग्रस्त हो चूका है.
यह मंदिर लगभग 5 हजार वर्ष पुराना मंदिर है और इसको लेकर कई मान्यताएं हैं. ऐसा कहा जाता है कि सम्राट अशोक के शासनकाल के दौरान, शारदा पीठ की स्थापना 237 ईसा पूर्व. में हुई थी. साथ ही आपको बता दें कि विद्या की अधिष्ठात्री हिन्दू देवी को समर्पित यह मंदिर अध्ययन का एक प्राचीन केंद्र था.
कुछ मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर का निर्माण पहली शताब्दी के प्रारंभ में कुषाणों के शासन के दौरान हुआ था और कुछ के अनुसार बौद्धों की शारदा क्षेत्र में काफी भागीदारी थी लेकिन शोधकर्ताओं को इस दावे के समर्थन में कोई सबूत नहीं मिले हैं.
राजा ललितादित्य ने बौद्ध धर्म के धार्मिक और राजनीतिक प्रभाव को बरकरार रखने के लिए शारदा पीठ का निर्माण किया था. इस दावे का समर्थन किया जाता है क्योंकि ललितादित्य बड़े पैमाने पर मंदिरों के निर्माण करने के लिए जाने जाते थे और इसमें वे माहिर थे.
यहीं आपको बता दें कि इस मंदिर को शक्ति पीठ के रूप में भी माना जाता है, जहां पर देवी सती के शरीर के अंग उनके पति भगवान शिव द्वारा लाते वक्त गिर गए थे. इसलिए, यह 18 महा शक्ति पीठों में से एक है या यु कहें कि ये पूरे दक्षिण एशिया में एक अत्यंत प्रतिष्ठित मंदिर, शक्ति पीठ है.
1947 के विभाजन के बाद से मंदिर पूरी तरह से निर्जन हो गया है. मंदिर में जाने से प्रतिबंध ने भी भक्तों को हतोत्साहित किया यानी 1947 तक लोग यहाँ पर दर्शन करने के लिए जाते थे, लेकिन उसके बाद क्या हुआ ये आप स्वयं अंदाज लगा लिजिए।
1947 के विभाजन के बाद से मंदिर पूरी तरह से निर्जन हो गया है. मंदिर में जाने से प्रतिबंध ने भी भक्तों को हतोत्साहित किया यानी 1947 तक लोग यहाँ पर दर्शन करने के लिए जाते थे, लेकिन उसके बाद क्या हुआ ये आप स्वयं अंदाज लगा लिजिए।
सरस्वति देवी को समर्पित शारदापीठ का ऐतिहासिक मंदिर इसी बस्ती में स्थित है जो की शताब्दियों से हिन्दु-बौद्ध विद्या का केन्द्र रहा है। कश्मीरी भाषा जिस शारदा लिपि में लिखी जाती थी उसका आविष्कार इसी स्थान पर ९वीं सदी ईसवी में हुआ। शारदा क़िला और किशनघाटी के स्थल भी इसी शहर में हैं। शारदा और नरदी नामक दो पर्वत इस नगर के साथ खड़े हैं।
शैव संप्रदाय के जनक कहे जाने वाले शंकराचार्य और वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य दोनों ही यहां आए और दोनों ही ने दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की। शंकराचार्य यहीं सर्वज्ञपीठम पर बैठे तो रामानुजाचार्य ने यहीं पर श्रीविद्या का भाष्य प्रवर्तित किया।
चौदहवीं शताब्दी तक कई बार प्राकृतिक आपदाओं से मंदिर को उतना नुकसान नहीं पहुंचा था जितना विदेशी आक्रमणों से। इस मंदिर को मुगल अक्रांताएँ से काफी नुकसान हुआ। इसके बाद 19वीं सदी में महाराजा गुलाब सिंग ने इसकी आखिरी बार मरम्मत कराई और तब से ये इसी हाल में है।
भारत-पाकिस्तान के बीच बंटवारे के बाद से ये लाइन ऑफ कंट्रोल के पास वाले हिस्से में आता है। बंटवारे के बाद से ये जगह पश्तून ट्राइब्स के कब्जे में रही। इसके बाद से ये पीओके सरकार के कब्जे में है।
141 ईस्वी में इसी स्थान पर चौथी बौद्ध परिषद का आयोजन किया गया था। शारदा पीठ में बौद्ध भिक्षुओं और हिंदू विद्वानों ने शारदा लिपि का आविष्कार किया था। शारदा पीठ में पूरे उपमहाद्वीप से विद्वानों का आगमन होता था। 11वीं शताब्दी में लिखी गई संस्कृत ग्रन्थ राजतरंगिणी में शारदा देवी के मंदिर का काफी उल्लेख है। इसी शताब्दी में इस्लामी विद्वान अलबरूनी ने भी शारदा देवी और इस केंद्र के बारे में अपनी किताब में लिखा है।
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