राहुल मेहता,
रांची: निर्भया के दोषियों के सजा का बार-बार टल जाना, कानून की जटिल प्रक्रिया के कारण न्याय में विलम्ब, लोगों को व्यथित करने एवं वैकल्पिक राह अपनाने के लिए बाध्य करता है. विलंबित न्याय से व्यथित कुछ लोग हैदराबाद इनकाउंटर को जायज विकल्प ठहराने लग जाते हैं तो कुछ लोग निर्भया के दोषियों का केस लड़ रहे वकीलों पर भी अपना गुस्सा निकालने से नहीं चूकते.
सोशल मीडिया का एक पोस्ट – “निर्भया के दोषियों को रिहा कर दो और उनकी शादी वकीलों की बेटियों से करवा दो” सदियों पुरानी दमनात्मक पुरुष मन:स्थिति की बयां करती है जिसमें, बलिवेदी पर महिला ही चढ़ती है. लैंगिक समानता के पैरोकार यह भूल जाते हैं कि अंततः वे एक महिला के न्याय के लिए पुरुष के अपराध की सजा पुरुष को नहीं, महिला को ही देने की मांग कर रहे हैं. क्यों नहीं कोई गलती से वकीलों के बेटों को सजा देने की बात करता है? यद्यपि यह भी गलत होता.
ऐसी सोच सदियों पुरानी है और आज भी वर्तमान है. तभी तो पुरुष प्रधान पंचायत एक भाई के अपराध की सजा उसकी बहनों से सामूहिक दुष्कर्म कर उन्हें गांव में नंगा घुमाने के आदेश के रूप में देता है. सर्वोच्च न्यायालय के सुरक्षा के आदेश के बावजूद पूरे परिवार को गांव से पलायन करना पड़ता है. क्या महिला पुरुष की सम्पत्ति है? उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं? पुरुष की सजा महिला को क्यों?
कुछ विद्वानजन महिला समानता के लिए बेटियों का पालन-पोषण बेटों जैसा करने की वकालत करते हैं. सोच में कोई दिक्कत नहीं लेकिन है यह भी एक पुरुषवादी सोच है. सही हो या गलत, कालांतर से पुरुषों के हर व्यवहार एवं गुणों को महिलाओं के व्यवहार एवं गुणों की तुलना में श्रेष्ठ करार दिया गया है. मनुष्य हमेशा श्रेष्ठतम के लिए प्रयास करता है. ऐसा नहीं है कि हर लड़कों का पालन पोषण सर्वोत्तम तरीके से होता है. अगर ऐसा होता तो वह भी घरेलू कार्यों में आत्मनिर्भर होते, महिलाओं का सम्मान करते, दुष्कर्म की घटनाएं नहीं होती. गलतियां लड़कों और लड़कियों दोनों के परवरिश में होती है. अभिभावकों को चाहिए कि वह लड़कियों का परवरिश लड़कों के जैसे करने के बजाय दोनों परवरिश बिना भेदभाव का करें, दोनों को उचित अवसर दें.
पुरुष महिला अधिकारों की बात कर रहे हैं यह सुकूनदायक है परंतु कितने पुरुष विशेषाधिकार छोड़ने की बात कहते हैं यह विचारणीय है. महिला दिवस में पुरुषों का बढ़ चढ़कर हिस्सा लेना सराहनीय है परन्तु मंचों में भी उनकी बहुलता खलती है. अगर कोई पुरुष कहता है कि वह महिलाओं को निर्णय लेने की सारी छूट देता है तो यह अपने आप में भेदभाव को इंगित करता है. कुछ पुरुष गर्व कर सकतें हैं कि वे महिलाओं के काम में हाथ बंटाते हैं. लेकिन प्रश्न यह है कि कौन सा कार्य केवल महिलाओं का होता है, घर का काम नहीं होता? और घर किसका होता है? जरुरत है परिवर्तन के पैरोकारों के भी आत्मावलोकन की. यह सही है कि परिवर्तन चरणबद्ध तरीके से ही होगी. ऐसी गलतियां स्वभाविक है, परंतु हम उन्हें नजरअंदाज कर महिला समानता की बात नहीं कर सकते. अंत में, सोशल मीडिया पर महिला दिवस की शुभकामनायें देने वालों ने यदि घर में शुभकामनायें नहीं दी है तो विलम्ब न करें. सोच को अमलीजामा पहनाएं.