औषधि प्रयोग से संबंधित कुछ महत्व जानकारी

औषधि प्रयोग से संबंधित कुछ महत्त्व की जानकारी

किसी भी रोग का उपचार करने से पहले रोग का निश्चित निदान, औषधि के गुण-दोष, देश, ऋतु तथा प्रकृति का विचार करना अत्यन्त ही आवश्यक होता है, क्योंकि इन सब बातों का ध्यान रखे बगैर यदि औषधि का प्रयोग किया जाता है, तो हो सकता है लाभ होने के बजाय हानि हो। जैसा कि गाय का तुरन्त दुहा हुआ ताजा दूध पथ्य, तेजोवर्धक, सद्यः वीर्य उत्पन्न करने वाला उत्तम औषधि के रूप में माना गया है। जबकि नये पित्तज्वर, अतिसार, संग्रहणी, अर्श, कफ, कास, विद्रधि, कृमि, नया सुजाक एवं कुष्ठ रोगों में यह दूध हानिकर माना जाता है। इसीलिए औषधि का प्रयोग करने से पहले पूरी तरह से विचार करना चाहिए।

इसी प्रकार कुछ ऐसी वनौषधियाँ हैं, जिनका प्रयोग करने से पहले शोधन किया जाता है- कलिहारी, कुचला, भिलामा, कनेर, अफीम, भाँग, धतूरा के बीज एवं गुंजा के बीज।

औषधि की तरह हींग का प्रयोग घी में तल कर किया जाता है, फिटकरी का प्रयोग फुला कर ही करना चाहिए।

क्वाथ मिट्टी के बर्तन में तथा ढके बगैर बनाना चाहिए, यदि मिट्टी का बर्तन उपलब्ध न हो, तो कलई किया पीतल के बर्तन में क्वाथ बनाना चाहिए। इसी तरह तेल को सिद्ध करने के लिए पीतल के बर्तन का ही प्रयोग करना चाहिए।

कल्क के लिए लोहे के बर्तन का प्रयोग किया जाता है। अपथ्य वस्तु का सेवन स्वेच्छा से या भूल से भी किया जाता है, तो औषधि का लाभ नहीं होता, इसलिए पथ्य वस्तुओं पर पूरा ध्यान देना चाहिए।

लोहभस्म वाली औषधि भोजन पश्चात् सेवन करना लाभकारी है। जुलाब की औषधि प्रातः काल में लेना चाहिए। गर्भवती महिलाओं को विरेचक या तेज औषधि का सेवन नहीं करना चाहिए।

बाजीकारक (शक्तिवर्धक) औषधि का सेवन करने से पहले शरीर में से सभी रोगों को दूर कर लेना चाहिए तथा शरीर का पूर्ण शोधन कर लेना चाहिए।

स्तनपान करते बच्चों को औषधि देने से पहले माँ भी रोग से पीड़ित है, तो उसे भी औषधि देनी चाहिए। प्रसूति रोग तथा त्रिदोष में घी का सेवन पूर्णतया वर्जित है।

एल्यूमीनियम वर्तन का प्रयोग किसी भी प्रकार की औषधि बनाने में भोजन तैयार करने में शुद्ध करने में उबालने में, वस्तु संग्रह में, जल पीने के लिए खाद्य पदार्थ सेवन में कभी भी नहीं करना चाहिए।

औषधि का चयन-

जहाँ तक संभव हो ताजी औषधि का ही प्रयोग करना चाहिए, किन्तु पीपर, गुड़, वायविडंग, धनिया, मधु तथा घी यह छः पदार्थ एक वर्ष पुरानी होनी चाहिए।

गिलोय, अडूसा, शतावर, अश्वगंधा, पीलावासा, सौंफ, प्रसारनी (हरनपदी-कोन्चोल्वुलस), कुटज की छाल तथा पेठा (कोहड़ा) ये नौ औषधियाँ तक ताजी उपलब्ध हों, उसी का उपयोग करना चाहिए, ताजा होने के कारण दुगुनी मात्रा में नहीं लेनी चाहिए, अन्य औषधियाँ सूखी तथा नयी लेनी चाहिए। जबकि ताजी हो तो दुगुनी मात्रा में लेनी चाहिए। जिस प्रयोग में औषधि सेवन का समय न बताया गया हो, उसका सेवन प्रात:काल ही करना चाहिए। जिस औषधि का प्रयोज्य अंग ने बताया गया हो, उसके मूल का ही प्रयोग करना चाहिए। जिस प्रयोग में भाग (हिस्सा) न कहा गया हो, वह सम भाग में लेनी चाहिए। जंगल की वनस्पति से तथा ताजी वनस्पति से बनाई हुई औषधि के गुण एक वर्ष के बाद बहुत कम हो जाते हैं। इसमें भी बनाया हुआ काढ़ा या क्वाथ आठ पहर में तथा कूट कर बनाया हुआ चूर्ण दो माह में गुणहीन हो जाता है। जबकि घी तथा तैलादिक चार माह में गुणहीन हो जाते हैं। गोली, अवलेह तथा पाक एक वर्ष बाद हीनवार्य हो जाते हैं। घी तथा मधु ये कभी भी सम भाग में नहीं लेने चाहिए, क्योंकि यह जहर बन जाता है। जामुन तथा मधु के साथ दूध का सेवन सर्प विष की तरह घातक प्रभाव वाला होता है। गरम किया हुआ दूध बीस घंटे तक ही गुणकारी होता है। रात का रखा हुआ दूध दिन में नहीं पीना चाहिए। महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष कम तथा कोमल औषधियों का सेवन करना चाहिए। इसी प्रकार अग्निमांद्य रोगियों को घी वाला आहार नहीं देना चाहिए।

औषधि कव एवं कैसी लानी चाहिए

औषधि लाने के लिए प्रातः काल का समय उत्तम माना जाता है। इसी प्रकार उत्तम स्थल पर उगी हुई वनौषधि के मूल या छाल जो भी अंग लेने हों, वही लें। गंदे स्थल पर या नमी वाले स्थल पर उगी वनौषधि तथा श्मशान में जिस स्थल पर घास उगा हुआ न हो, वैसे स्थल को वनौषधि का प्रयोग औषधि की तरह नहीं करना चाहिए। कार्तिक तथा आसो मास में सभी प्रकार की वनौषधियाँ गुणवाली तथा रस से भरी होती हैं, इसी कारण इन्हीं महीनों में औषधियाँ लानी चाहिए। जबकि रेचन तथा उल्टी के लिए वनौषधि वैशाख तथा जेठ माह में लानी चाहिए। जिस वृक्ष के मूल बड़े तथा मोटे हों, उस वृक्ष के मूल की छाल लेनी चाहिए। जिस वनौषधि के मूल छोटे हों, उसके मूल का ही प्रयोग औषधि के रूप में करना लाभकारी होता है।

स्वरस (अंग रस)

ताजी वनौषधि को कूट कर स्वच्छ कपड़े द्वारा निचोड़ने से जो रस निकलता है, उसको स्वरस या अंग रस कहते हैं। सूखी हुई वनौषधि सोलह तोला लेकर उसका चूर्ण बना कर उसमें दुगुना जल मिलाकर मिट्टी के घड़े में आठ पहर तक भिगोकर रखना चाहिए, इसके पश्चात् दूसरे दिन इसको छान कर इस जल का प्रयोग करना चाहिए।

सूखी हुई वनीपधि लेकर उसमें आठ गुना जल मिलाकर उबालना चाहिए, चौथा हिस्सा जल बाकी रहे, तब तक उबालना चाहिए, इसको छानने के पश्चात् प्राप्त हुआ रस अंग रस कहलाता है। यदि इसका सेवन करना है, तो केवल दो तोला ही करना चाहिए। यदि सूखी औषधि को रात भर भिगोकर रखने के पश्चात् काढ़ा बनाया गया है, तो उसको सेवन मात्रा चार तोला होती है। यदि स्वरस में मधु, शर्करा, गुड़, जीरा, तेल, घी मिलाना है, तो आधा-आधा तोला ही मिलाना चाहिए।

क्वाथ

इसके लिए सभी औषधियाँ मिलाकर चार तोला लेकर कूट लें. इसमें ६४ तोला जल मिलाकर धीमी अग्नि पर, मिट्टी के घड़े में या अन्य बर्तन में उबालें, आठ तोला जल बाकी रहे, तब तक उबालें। इसको छानकर सेवन की मात्रा बधों के लिए तीन माशा से एक तोला होती है। क्वाथ में शर्करा, दूध, गुड़, पीपर आदि पदार्थों को अनुपान अनुसार उचित मात्रा में मिलाना चाहिए।

चूर्ण- सूखी यानि शुष्क औषधि (द्रव्य) लेकर कूट लें तथा महीन कपड़े से छान लें, इसको चूर्ण कहते हैं। इसका सेवन प्रौढ़ के लिए छः माशा से एक तोला तथा छोटे बच्चे के लिए एक माशा से तीन माशा लम्बे समय तक होता है। चूर्ण में गुड़ दुगुनी मात्रा में घृतादि पदार्थों में चूर्ण डालना हो तो चूर्ण से घी की मात्रा दुगुनी डालनी चाहिए। इस चूर्ण का कथि बनाना हो, तो यह चूर्ण पूरी तरह भीग जाये, इतनी मात्रा में प्रवाही डालना चाहिए।

गोलियाँ (वटिका)

बनानी हो तो अगर यह गोलियाँ मधु या गुग्गुल में बनानी हों, तो यह चूर्ण के सम भाग में लेते हैं, यदि गुड़ में बनानी हों, तो गुड़ की मात्रा दुगुनी लेते हैं, किन्तु शर्करा में बनानी हों, तो चूर्ण से शर्करा की मात्रा चौगुनो लेकर पाक बनाकर उसमें चूर्ण मिलाकर गोलियाँ बनायी जाती हैं।

हिम (शीत कपाय)

चार तोला आपधि कूटकर, चौबीस तोला जल में रात भर भिगोकर रखा रहने दें तथा प्रातः छान लें। इसको हिम या शोत कपाय कहते हैं। इसको सेवन मात्रा आठ तोला होती है।

कल्क-

ताजी हरी वनौषधि को बारीक चटनी की तरह घोटकर यदि सूखी वनौषधि हो, तो उसमें जल मिलाकर घोट लें सेवन मात्रा दस माशा होती है। यदि कल्क में घी, तेल मिलाना है, तो कल्क से इनकी मात्रा दुगुनी लेनी चाहिए। यदि शर्करा मिलानी हो, तो दोनों ही सम मात्रा में होने चाहिए।

अवलेह-

जिस प्रधान वनौषधि का अवलेह बनाना है, उसका स्वरस लें या क्वाथ बनाकर छान ले, इस क्वाथ प्रवाही को पुनः धीमी आग पर गाढ़ा होने दें। इसमें मधु, गुड़ या शर्करा तथा घी एवं तेल भी मिलाया जा सकता है। यह जानने के लिए कि अवलेह तैयार हो गया है या नहीं, इसके लिए जल से भरे प्याले में अवलेह को डालने से यदि वह डूब कर तल में बैठ जाता है, तो वह ठीक तैयार हो गया है। इसकी सेवन मात्रा १/२ से २ तोला तक की होती है।

पाक

जिस वनौषधि का पाक बनाना है, उसका चूर्ण बनाकर उसमें १६ से २० गुना दूध डालकर खोया (मादा) बना लें, इसके पश्चात् इसमें घी मिलाकर अग्नि पर रख कर हिलाकर उसको दाना स्वरूप कर लें। इस तैयार हुए दाने में इसी के सम वजन में शर्करा की तीन तार की चासनी बनाकर मिला दें। इसके पश्चात् आवश्यकतानुसार इसमें बादाम, पिस्ता, बंगादिभस्म मिलाकर थाली में घी लगाकर पाक को इसमें ठंडा कर लें। इसके लड्डू या वरफी जैसे टुकड़े काट लें।

आसव-

जिस वनौषधि का आसव बनाना है, उसको जल में उबालें, बगैर कलई किये हुए पीतल के बर्तन में ठंडे जल में मिलाकर एक से दो माह रखने से आसव तैयार हो जाता है। इसको मात्रा चूर्ण ५०० ग्राम, मधु ढाई किलोग्राम गुड़ छः किलोग्राम तथा जल छः लोटर मिलाकर आसव तैयार किया जा सकता

अरिष्ट-

किसी भी औषधि के उबाले हुए जल में औषधि का चूर्ण मिलाकर मिट्टी के बर्तन में मुँह बंद कर एक से दो माह तक रखने से अरिष्ट तैयार होता है जहाँ निश्चित मात्रा (प्रमाण) न लिखी हो, उस समय औषधि सहित दो लोटर उबले हुए जल में मधु ढाई किलोग्राम गुड़ छः किलोग्राम मिलाकर अरिष्ट बनाया जा सकता है।

शरबत

जिस औषधि का शरबत बनाना हो, उसका स्वरस, अर्क या काढ़ा तैयार कर उसमें स्वरस से डेढ़ गुनी शर्करा की चासनी तैयार कर मिलायी जाती है, तो औषधि का शरबत तैयार हो जाता है।

मुरब्बा

जिस औषधि का मुरब्बा तैयार करना हो यदि यह चीज कठिन है, तो इसको चाकू से कट (बोर) मारकर जल में उबाल लें, यदि छाल सहित है, तो छाल निकाल कर अंदर के मृदु भाग टुकड़े के कर उबाल लें। इसके पश्चात् इस वस्तु से तीन गुनी शर्करा की चासनी बनाकर उसमें यह उबली हुई वस्तु डाल दें। कारण कि इस वस्तु में रहा जल चासनी में मिलकर चासनी को पतली कर देता है। रुचि अनुसार इसमें इलायची, केसर डालकर इस मुरब्बे को शीशी के मर्तबान में भरकर मुँह बंद कर कुछ समय के लिए रखा रहने दें। इसमें अच्छा स्वाद व गुण पैदा हो जाएगा।

घी-घृत

जिस औषधि का घो सिद्ध करना हो, उस औषधि के स्वरस या कल्क से चार गुना घी लेते हैं, घी से चार गुना जल या दूध या गोमूत्र लें। यदि वनौषधि सुखी है, तो १६ गुना जल में क्वाथ बनाकर घी सिद्ध किया जा सकता है। क्वाथ या कल्क के साथ उबलता जल जब सम्पूर्ण रूप से सूख जाये तथा औषधि का भाग पककर लाल हो जायें एवं घी अलग हो जाये तब घी तैयार हो गया है समझना चाहिए। सेवन मात्रा एक से दो तोला की होती है।

तेल सिद्ध करना

उपर्युक्त पद्धति से ही किया जा सकता है। घी के बदले तेल का प्रयोग किया जाता है।

फांट

जिस औषधि का फांट बनाना है, उस औषधि का महीन चूर्ण गरम जल में मिट्टी या शीशे के बर्तन में दो घंटे तक भिगोकर रख दें। इसके पश्चात् छान कर इस जल का प्रयोग किया जा सकता है या ठंडे जल में बारह घंटे रखा रहने के बाद यह फांट तैयार हुआ माना जाता है। सेवन मात्रा चार तोला की है। उसमें अनुपान के रूप में एक तोला मधु मिलाया जा सकता है।

पुटपाक

जिस किसी वनौषधि का पुट पाक बनाना है, उस ताजी वनौषधि को पीसकर इसका गोला बनाकर इस पर वट, एरण्ड या जामुन के पत्तों को लपेट कर उस पर कपड़े सहित मिट्टी का एक इंच स्तर चढ़ा कर इस गोले को गोबर के कण्ड की आग में रखें, जब पूर्ण रूप से गोला लाल हो जाय, तब मिट्टी का स्तर हटा कर गोले से रस निचोड़ लें। यदि वनौषधि सूखी है, तो उसको जल में घोट कर उसका गोला बना सकते हैं। इस रस को सेवन मात्रा दो से चार तोला होती है। यदि आवश्यक लगे, तो उसमें आधे से एक तोला तक मधु मिला लें।

रसक्रिया

घन जिस वनौषधि की रस क्रिया-घन करनी है, उसकी चूर्ण सोलह गुना जल में मिलाकर आठवें हिस्से का जल बाकी रहे, ऐसा क्वाथ बना लें। इसक्क ाथ को छानकर इसको दुबारा उबाल कर गाढ़े खोये (मावा) जैसा तैयार हो जाये तब तक उबालें, यह गाढ़ा पदार्थ रस क्रिया घन कहलाता है। भारतवर्ष में दारुहल्दी, गिलोय, मधुयष्टि जैसी अनेक वनौषधियों की रस क्रिया करने की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है।

सिरका

मीठे प्रराही जैसे गन्ने का रस, जामुन का रस, अंगूर का रस शीशे के मर्तबान में भरकर उसका मुँह बंद कर रखे रहने से सिरका तैयार हो जाता है। इस रस का सिरका तैयार होने तक प्रत्येक सप्ताह के अंतर पर उसे छानते जायें।

मंथ (हिम)-

वनौषधि चूर्ण में सोलह गुना जल मिलाकर अच्छी तरह हिलावें, उसके पश्चात् इसे कपड़े से छान लें, छना हुआ प्रवाही मंथ होता है। इसकी सेवन आठ तोला होती है।

क्षार

जिस वनीपधि का क्षार तैयार करना हो उसका पंचांग एक बड़े बर्तन में जला कर उसकी भस्म बना लें। इस भरम को ६४ गुना जल में मिला दें, इसे एक दिन तक रहने दें, इस जल में तमाम क्षार घुल जायेगा तथा भरम का हिस्सा नीचे बैठ जायेगा। इसके पश्चात् ऊपर से निथरे हुए जल को दूसरे बर्तन में एकत्र कर अच्छी तरह उबालने से क्षार तैयार हो जाता है। इस क्षार में भस्म रहने से क्षार काला दिखता है. इसको दुबारा थोड़े जल में डालकर अच्छी तरह हिला कर पाँच से सात घंटे रहने दें, इसके ऊपर का निथरा हुआ जल छान कर उबाल लें, तो शुद्ध सफेद क्षार प्राप्त होगा।

औषधि का सेवन समय

→ क्वाथ, अंग रस (स्वरस) चूर्ण प्रातः काल

→ अरुचि तथा अग्निमांद्यता हो तो भोजन

→ स्वरभंग के लिए रात्रि भोजन के साथ।

के साथ।

→ धातुपुष्टि के लिए प्रातः काल एवं सायं भोजन के पश्चात् ।

→ कान में तेलादिक डालने के लिए रात को सोते समय।

→ काढ़ा, चूर्ण, रसायन इत्यादि औषधियाँ सेवन करनी हो तो ३, ७, १४, २१ या ४२ दिन लगातार

एक या दोनों समय सेवन करनी चाहिए।

→ मूत्रल औषधि दिवस प्रातः काल

→ मृदुविरेचन रात को सोते समय

→ अतिरेचन की औषधि खाली पेट प्रातःकाल।

→ वमन कराने के लिए औषधि प्रातः काल कांजी पिलाकर

→ फल खाने के समय भोजन के पश्चात् ।

→ मादक या पसीना लाने के लिए औषधि सेवन रात को सोने के दो घंटे पहले।

पथ्य पालन-

ऐसा कहा जाता है कि पथ्य पालन करने वाले रोगी का रोग औषधि सेवन के बिना भी ठीक हो जाता है लेकिन पथ्यहीन रोगी के रोग, सैकड़ों औषधियों के सेवन से भी ठीक नहीं हो पाते। यदि पथ्य पालन किया जाये तो औषधि सेवन की कोई आवश्यकता नहीं होती। पथ्य पालन नहीं करने वाला

यदि औषधि का भी सेवन करता है, तो यह औषधि सेवन अर्थहीन हो जाता है।

विनापि भेषजैर्व्याधिपथ्यादेव निवर्तते। न तु पथ्यविहीनस्य भेषजानां शतैरपि।

पथ्ये सति गदार्तस्य किमौषधनिषेवणैः ।

पथ्येऽसति गदार्तस्य किमौषधनिषेवणैः ॥ (लोलिराज बृ.) यथा काष्ठचयं दूरात् प्राप्य घोरतरोऽग्निकः,

तथाऽपथ्यस्य संयोगाद् भवेद् घोरतरोऽगदः ।। (हारीतसंहिता)

जिस तरह लकड़ी के ढेर पर दूर से गिरी अग्नि अंत में भयानक रूप ले लेती है, उसी तरह अपथ्य सेवन करने वाले रोगों का रोग भयानक स्वरूप ले लेता है। अनुपान इस पुस्तक में औषधि सेवन के समय जहाँ अनुपात नहीं बताये गये हैं, वहाँ रोगअनुसार निम्नलिखित अनुपान देने चाहिए।

सन्निपात में →अदरख का रस।

खाँसी (कास) एवं कफ विकार में → अडूसा स्वरस या त्रिकटु का चूर्ण ।

ज्वर तथा विषम ज्वर में → मधु तथा पीपर।

संग्रहणी में → छाछ ।

जीर्ण ज्वर में→ मधु तथा लींडी पीपर।

कृमिरोग में →वायविडंग।

क्षयरोग में→ शिलाजीत।

मूल व्याधि में → चित्रक तथा भिलामा।

श्वासरोग में→ भारंगी मूल।

प्रमेह में → आँवला, हल्दी एवं शर्करा वाला त्रिफला।

तृषा में →तपाये हुए सोने से छमकाया (छौंका) हुआ जल।

ज्वर तथा तृपा में →तपाये हुए लोहे से छमकाया हुआ जल।

त्रिदोष में →अदरख का स्वरस तथा मधु ।

शूल में→ घी एवं हींग।

आम में → करंज, गोमूत्र तथा एरण्ड का तेल।

प्लीहा में →त्रिफला तथा पीपर।

खाँसी में → कंटकारी तथा त्रिकटु ।

बात व्याधि में →गुग्गुल, लहसुन तथा घी।

रक्तपित्त में →अडूसा स्वरस

फेफड़े तथा स्वर शुद्धिकरण के लिए→ वच, अकरकरा तथा मधु।

उदररोग में →विरेचन ।

वातरक्त में →गिलोय एवं एरण्ड का तेल।

मेदरोग में →जल में मधु मिलाकर सेवन।

प्रदर में →लोध।

अरुचि में →अनार या बिजोरा का रस।

व्रण में →त्रिफला एवं गुग्गुल

शोक में →मधु का आसव।

अम्लपित्त में →द्राक्षा।

नेत्ररोग में →त्रिफला ।

उन्माद में→पुराना घी।

निद्रा नाश में →भैंस का दूध।

कुष्ठ रोग में→ खदिर की छाल – जल

श्चित्ररोग में →बावची तथा काली गूलर।

अजीर्णता में →निद्रा तथा हरड़।

मूर्छा रोग में→शीतोपचार।

अश्मरी में →शिलाजीत ।

मूत्रघात में →कोमल मूली के पत्रों का स्वरस तथा सूर्याखार मिलाकर।

गुल्म (आध्मान) में →वरुण की छाल।

विद्रधि में→शीतविधि।

स्वर शुद्धि करने के लिए →पुष्कर मूल का सेवन मधु के साथ।

रोगी के लिए जल का प्रयोग

शीतल जल का सेवन

मूर्छा, पित्त, गरमी, दाह, विष विकार, रक्त विकार, तमक श्वास, वमन, ऊर्ध्व रक्तपित्त जैसे रोगों में लाभकारी।

उबले हुए गुनगुने जल का सेवन

प्रतिश्याय, वातरोग, आध्मान, विबंध, अतिरेचन में, नवीन ज्वर, अरुचि, संग्रहणी, श्वास, खाँसी, गण्ड, हिचकी जैसे रोगों में तथा तेलादि स्नेह पीने के पश्चात् शीतल जल का सेवन नहीं करना चाहिए। इसलिए इन रोगों में उबला हुआ गुनगुना जल का सेवन करना चाहिए।

सत्रिपात रोग में रोगी जब तृपा से बहुत ही घबराता हो, उस समय शीतल जल का सेवन मृत्यु को निमंत्रण देना होगा। विषूचिका रोग को उल्टी हुई हो, तो आवश्यकता होने पर सौंफ का उबाला हुआ जल एक-एक चम्मच देते रहना चाहिए। अरुचि, जुकाम, अग्नमांद्यता, शोध, यक्ष्मा, उदररोग, चित्र, नेत्ररोग, नवीन ज्वर, व्रण तथा मधुमेह जैसे रोगों में थोड़ा-थोड़ा जल देते रहना चाहिए। उष्ण जल का सेवन रक्तपित्त, मूर्ख, रक्त विकार एवं पित्तप्रधान रोगों में अति हानिकारक है।


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श्रोत एवं साभार: ब्रह्मवर्चस विश्वविद्यालय के उद्यान एवं जड़ीबूटी विभाग द्वारा रचित किताब “आयुर्वेद का प्राण वनौषधि विज्ञान